मेलिसा या राहुल-शिक्षाविदों के किसके ईमेल का जवाब देने की संभावना ज्यादा? |

मेलिसा या राहुल-शिक्षाविदों के किसके ईमेल का जवाब देने की संभावना ज्यादा?

मेलिसा या राहुल-शिक्षाविदों के किसके ईमेल का जवाब देने की संभावना ज्यादा?

:   Modified Date:  October 22, 2024 / 05:49 PM IST, Published Date : October 22, 2024/5:49 pm IST

(मेग मैक्केंजी, साइमर फ्रेजर यूनिवर्सिटी और बेंजामिन ई गोल्डस्मिथ, ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी)

सिडनी, 22 अक्टूबर (द कन्वरसेशन) विश्वविद्यालयों से ऐसे संस्थान की भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है, जहां सभी छात्र भेदभाव मुक्त वातावरण में पढ़-लिख सकें।

इस उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव है, जब शिक्षाविद सभी छात्रों के लिए अध्ययन और अनुसंधान के बराबर मौके सुनिश्चित करें, फिर चाहे उनकी नस्लीय पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

लेकिन जैसा कि हमारा अध्ययन दर्शाता है, ऑस्ट्रेलियाई शिक्षाविदों ने संभावित पीएचडी छात्रों के ईमेल पर समान रूप से प्रतिक्रिया नहीं दी। उनके जवाब देने की संभावना इस बात पर निर्भर करती थी कि आवेदक का नाम ‘मेलिसा’ है या ‘राहुल।’

विश्वविद्यालयों में नस्ली भेदभाव

-ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों में हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि विश्वविद्यालयों में नस्ली भेदभाव की समस्या सदियों से चली आ रही है।

साल 2020 में ऑस्ट्रेलिया में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, विश्वविद्यालयों का संचालन ज्यादातर श्वेत उम्रदराज व्यक्ति करते हैं। 2021 में ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के अनुसार, अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले शिक्षाविदों को कार्यस्थल पर नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

लेकिन शिक्षाविद बनने के सपने देखने वाले लोगों के साथ होने वाले नस्ली भेदभाव पर कम ध्यान दिया गया है। लोग अमूमन पीएचडी की डिग्री हासिल करने के बाद शिक्षाविद के रूप में करियर की शुरुआत करते हैं। ऑस्ट्रेलिया के उच्च शिक्षण संस्थानों में पीएचडी के लिए किसी छात्र का आवेदन आमतौर पर तभी स्वीकार किया जाता है, जब कोई स्थापित शिक्षाविद उनका मार्गदर्शन करने की हामी भरता है। ऐसे में संभावित मार्गदर्शक से छात्र का शुरुआती संवाद बेहद अहम है।

अध्ययन में आठ विश्वविद्यालय शामिल

-क्या पीएचडी के लिए सीट सुरक्षित करने में छात्रों की नस्ली पहचान की भी कोई भूमिका है, इसका पता लगाने के लिए साल 2017 में हमने ऑस्ट्रेलिया के उन आठ विश्वविद्यालयों के शिक्षाविदों को काल्पनिक छात्रों के लगभग 7,000 ईमेल भेजे, जिन्हें शोध और अनुसंधान के लिहाज से शीर्ष शिक्षण संस्थानों में शुमार किया जाता है।

इनमें ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, मोनाश यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ एडिलेड, यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स, यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न, यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी, वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी और क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी शामिल हैं।

हमने वरिष्ठ व्याख्याता या उससे ऊपर के शिक्षाविदों को ईमेल भेजा, क्योंकि उनके पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन करने की संभावना ज्यादा होती है। शिक्षाविदों का चयन विश्वविद्यालयों की वेबसाइट से किया गया और हमने सभी विषयों में हर उस शिक्षाविद को ईमेल भेजा, जो हमारे मानकों पर खरा उतरता था।

इस प्रक्रिया में हमने पाया कि 70 फीसदी उपयुक्त शिक्षाविद पुरुष थे और 84 प्रतिशत श्वेत।

ईमेल में क्या लिखा था

-ईमेल में पीएचडी के लिए संभावित मार्गदर्शन के बारे में बात करने के वास्ते मुलाकात का आग्रह किया गया था। इनकी विषय वस्तु समान थी, सिवाय ‘सेंडर’ के नाम के। ‘सेंडर’ में श्वेत यूरोपीय, स्वदेशी, दक्षिण एशियाई, चीनी और अरब पहचान जाहिर करने वाले नाम शामिल किए गए थे।

ईमेल में कहा गया था कि ‘सेंडर’ ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले छात्र-छात्राएं हैं, जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं। इसमें ‘रिसिपिएंट’ (प्राप्तकर्ता शिक्षाविद) के शोध में दिलचस्पी दर्शाते हुए तुरंत मुलाकात की आवश्यकता बताई गई थी, क्योंकि ‘सेंडर’ (ईमेल भेजने वाला छात्र) कई दिनों से परिसर में था।

ईमेल सिडनी यूनिवर्सिटी की एक ईमेल आईडी से भेजा गया था और इसमें यह भी लिखा था, “मैंने हाल ही में ऑनर्स की डिग्री हासिल की है।” ऑस्ट्रेलिया में ऑनर्स डिग्री धारियों को पीएचडी के लिए सबसे ज्यादा दाखिला मिलता है।

अध्ययन में क्या सामने आया

-उन जवाबी ईमेल को ‘सकारात्मक’ के रूप में वर्गीकृत किया गया, जिनमें ‘रिसिपिएंट’ ने मुलाकात के लिए हामी भरी या अतिरिक्त जानकारी उपलब्ध कराने की मांग की। वहीं, जिन जवाबी ईमेल में मुलाकात का अनुरोध ठुकरा दिया गया, उन्हें ‘गैर-सकारात्मक’, जबकि ‘ऑटोमेटेड रिप्लाई’ या बिना प्रतिक्रिया वाले ईमेल को ‘अनुत्तरित’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।

अध्ययन के दौरान जो 6,928 ईमेल भेजे गए, उनमें से 2,986 (43.1 फीसदी) पर 24 घंटे के भीतर और 2,469 (35.6 प्रतिशत) पर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। 3,942 (56.9 फीसदी) ईमेल ‘अनुत्तरित’ थे, जबकि 517 (7.5 फीसदी) में मुलाकात का अनुरोध ठुकरा दिया गया।

हमने देखा कि गैर-श्वेत नस्लीय समूहों से जुड़े नामों के ईमेल को श्वेत पहचान से जुड़े नामों के ईमेल के मुकाबले काफी कम प्रतिक्रियाएं और सकारात्मक जवाब मिले।

हमने पाया कि ‘मेलिसा स्मिथ’ के नाम से भेजे गए ईमेल को ‘ग्रेस चेन जिनयान’, ‘उमर अल-हद्दाद’ या ‘राहुल कुमार’ नाम से भेजे गए ईमेल की तुलना में सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने की संभावना क्रमश: छह फीसदी, नौ फीसदी और 12 फीसदी ज्यादा थी।

कुल मिलाकर हमारे सांख्यिकीय विश्लेषण से पता चला कि अश्वेत पहचान वाले नामों के मुकाबले श्वेत पहचान वाले नामों को प्रतिक्रिया मिलने की संभावना औसतन सात प्रतिशत, जबकि सकारात्मक जवाब हासिल होने की गुंजाइश औसतन नौ फीसदी ज्यादा थी।

ये नतीजे चिंताजनक हैं, क्योंकि इनसे संकेत मिलता है कि नस्ली पूर्वाग्रह यह निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाता है कि किस उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला मिलता है।

राहत की बात

-अध्ययन में देखा गया कि वरिष्ठता सूची में नीचे मौजूद शिक्षाविद अलग-अलग पृष्ठभूमि के छात्रों के प्रति कम भेदभाव दिखाते हैं।

वरिष्ठ व्याख्यता या सहायक प्रोफेसर स्तर के शिक्षाविदों की बात करें तो उनके राहुल के मुकाबले मेलिसा के ईमेल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने की संभावना 10.5 फीसदी अधिक थी। वहीं, पूर्ण प्रोफेसर स्तर के शिक्षाविद के मामले में यह गुंजाइश 14.7 प्रतिशत ज्यादा थी।

हालांकि, कनिष्ठ शिक्षाविदों के पास अक्सर बहुत कम संस्थागत शक्ति होती है और दाखिले के मामले में उनकी राय को अमूमन ज्यादा तवज्जो भी नहीं दी जाती।

हम क्या कर सकते हैं

-विश्वविद्यालय खुद के योग्यता आधारित संस्थान होने का दावा करते हैं, जहां सर्वश्रेष्ठ विचारों और प्रतिभाशाली छात्रों को पेशेवर जीवन में ऊंचा मुकाम हासिल करने का मौका दिया जाता है। लेकिन हमारे अध्ययन से पता चलता है कि नस्ली पूर्वाग्रह इस सिद्धांत को कमजोर कर रहा है।

यह स्वीकारोक्ति बढ़ रही है कि ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय परिसरों (साथ ही व्यापक समाज में) में नस्लवाद एक महत्वपूर्ण समस्या है। मई में संघीय सरकार ने ऑस्ट्रेलियाई मानवाधिकार आयोग से ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों में नस्लवाद की व्यापकता और प्रभाव का अध्ययन करने के लिए कहा।

लेकिन इस अध्ययन के नतीजे जून 2025 से पहले नहीं आने वाले और इसके आधार पर उठाए जाने वाले कदमों को लागू करने में और भी समय लगेगा।

ऐसे में हम अभी इस समस्या से निपटने के लिए क्या सकते हैं। सबसे पहले, विश्वविद्यालयों को यह मानना होगा कि विविधता लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उनके ज्यादातर शिक्षाविद श्वेत और पुरुष हैं।

दूसरा, विश्वविद्यालयों को यह भी स्वीकार करना होगा कि दाखिले में नस्ली भेदभाव व्याप्त है। तीसरा, अध्ययन के जरिये यह पता लगाना होगा कि उच्च शिक्षा में कैसे नस्ली भेदभाव होता है और इससे निपटने की बेहद प्रभावी रणनीति बनानी पड़ेगी।

(द कन्वरसेशन) पारुल नरेश

नरेश

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)