(गौरव सैनी)
बाकू (अजरबैजान), 21 नवंबर (भाषा) विकासशील देशों के लिए नये जलवायु वित्त पैकेज का अधिक सुव्यवस्थित मसौदा बृहस्पतिवार सुबह पेश किया गया, जो 25 पन्नों से घटकर 10 पन्नों का हो गया, लेकिन इसमें प्रमुख मुद्दे अब भी बरकरार हैं।
मसौदे पर गौर करने पर पता चलता है कि विकसित देश अब भी एक प्रमुख सवाल का जवाब देने से कतरा रहे हैं कि वे वर्ष 2025 से विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर साल कितना वित्तीय सहयोग देने को तैयार हैं?
विकासशील देश लगातार कहते आए हैं कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और जलवायु अनुकूलन के लिए उन्हें कम से कम 13 खरब अमेरिकी डॉलर की जरूरत है। बाकू में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन को समाप्त होने में बस दो दिन बचे हैं, ऐसे में वार्ताकारों पर किसी समझौते पर पहुंचने की बड़ी जिम्मेदारी है।
जलवायु कार्यकर्ता एवं जीवाश्म ईंधन अप्रसार संधि पहल के वैश्विक सहभागिता निदेशक हरजीत सिंह ने कहा, “संशोधित मसौदा अधिक सुव्यवस्थित है और यह कई विकल्प पेश करता है, जिनमें से कुछ अच्छे, कुछ बुरे और कुछ पूरी तरह से खराब हैं।”
उन्होंने कहा कि संशोधित मसौदे में विकसित देशों से वित्तीय सहयोग की आवश्यकता को स्वीकार किया गया है, लेकिन इसमें एक महत्वपूर्ण सवाल का जवाब नहीं दिया गया है कि कितने वित्त की जरूरत है, जिससे विकासशील देशों पर घरेलू स्तर पर अधिक धन जुटाने का दबाव बरकरार है।
सिंह ने यह भी कहा कि मसौदा बढ़ती वित्तीय आवश्यकताओं और सीमित संसाधनों वाले क्षेत्रों, मसलन-शमन, अनुकूलन और जलवायु प्रभावों से होने वाले नुकसान एवं क्षति से निपटने के लिए स्पष्ट वित्तीय लक्ष्य निर्धारित करने में विफल साबित होता है।
उन्होंने कहा, “जीवाष्म ईंधन से (नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ) वास्तविक एवं न्यायसंगत परिवर्तन के लिए मजबूत सार्वजनिक वित्त की आवश्यकता है, खोखले वादों की नहीं।”
दिल्ली स्थित थिंकटैंक ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के वैभव चतुर्वेदी ने कहा कि नये जलवायु वित्त पैकेज का अधिक सुव्यवस्थित मसौदा तैयार होना एक सकारात्मक घटनाक्रम है, लेकिन विकसित देशों ने (वित्तीय सहयोग पर) स्पष्ट आंकड़ा नहीं पेश किया है।
विश्व संसाधन संस्थान (डब्ल्यूआरआई) की अंतर्राष्ट्रीय जलवायु पहल के निदेशक डेविड वास्को ने कहा कि मसौदा में कई मुद्दों का जिक्र नहीं है।
उन्होंने कहा, “समय बहुत कम है और मसौदे को और अधिक सुव्यवस्थित बनाने तथा उसमें अन्य विकल्प शामिल करने के लिए काफी काम किए जाने की जरूरत है। अंतिम समझौते पर पहुंचने के लिए अध्यक्ष, मंत्रियों और विभिन्न पक्षों को अगले 48 से 72 घंटों में काफी कड़ी मेहनत करनी होगी।”
मसौदा जलवायु वित्त पर दो रुख पेश करता है, एक विकासशील देशों का और दूसरा विकसित देशों का।
विकासशील देशों का रुख है कि विकसित देशों को 2025 से 2035 तक हर साल खरबों डॉलर का जलवायु वित्त उपलब्ध कराना चाहिए। उनका कहना है कि उक्त राशि का अधिकतर हिस्सा अनुदान या अनुदान-समतुल्य शर्तों (सार्वजनिक वित्त) के तहत दिया जाना चाहिए और लक्ष्य को पूरा करने के लिए जुटाए गए निजी वित्त से विकासशील देशों पर कर्ज नहीं चढ़ना चाहिए।
विकासशील देशों का यह भी कहना है कि जो विकासशील देश अन्य विकासशील देशों का समर्थन करना चाहते हैं, उन्हें ऐसा स्वेच्छा से करना चाहिए और यह स्वैच्छिक सहायता जलवायु वित्त पैकेज में शामिल नहीं होगी।
विकासशील देशों ने बोझ-साझाकरण व्यवस्था कायम करने का सुझाव भी दिया है, जिसके तहत देशों के उत्सर्जन इतिहास और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर तय किया जाएगा कि जलवायु वित्त में कौन कितना योगदान देगा।
वहीं, विकसित देशों का रुख दो स्थितियां पेश करता है। पहली, वैश्विक जलवायु वित्त 2035 तक प्रति वर्ष एक ट्रिलियन (10 खरब) अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा छुएगा, जिसमें सभी स्रोतों से धन आएगा। हालांकि, इसकी राशि अभी स्पष्ट नहीं है।
यह विकल्प पेरिस जलवायु समझौते के अनुच्छेद-9 में शामिल नहीं है, जो विकसित देशों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना अनिवार्य बनाता है। इसका मतलब है कि कुछ संपन्न, उच्च उत्सर्जन वाले विकासशील देशों से जलवायु वित्त में योगदान देने के लिए कहा जा सकता है।
दूसरी स्थिति अनुच्छेद-9 को ध्यान में रखती है और एक ऐसे लक्ष्य का आह्वान करती है, जो सार्वजनिक और निजी सहित विभिन्न स्रोतों से सामूहिक रूप से विकासशील देशों के लिए 2035 तक प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि जुटाए।
जलवायु वित्त सहायता किसे प्राप्त होगी, इसे लेकर मसौदे में कहा गया है कि यह विशेष रूप से सभी विकासशील देशों के लिए होगी। हालांकि, अल्प विकसित देशों और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों के लिए विशिष्ट राशि पर अभी तक कोई सहमति नहीं कायम हुई है।
अंतरराष्ट्रीय जलवायु नीति थिंक टैंक ई3जी के सहायक निदेशक रॉब मूर ने कहा कि स्पष्ट प्रस्ताव या राशि के अभाव का मतलब है कि वार्ताकारों को अगले एक-दो दिनों में बहुत काम करना है।
भाषा
पारुल अविनाश
अविनाश
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