(ल्यूडमिला ताराबाश्किना, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय, केनेथ कैसन खैर (फू जियान) हो, एडिथ कोवान विश्वविद्यालय और राजेश राजगुरु, तस्मानिया विश्वविद्यालय)
मेलबर्न, पांच फरवरी (द कन्वरसेशन) ऑस्ट्रेलिया में भोजन की बर्बादी की आर्थिक लागत चौंका देने वाली है। ऐसा अनुमान है कि हर साल अर्थव्यवस्था को 36.6 अरब डॉलर का नुकसान होता है। हमारी ज्यादातर उपज कभी दुकानों तक पहुंच ही नहीं पाती और इन्हें आकार या पकने जैसे कारणों से खेतों में ही निपटा दिया जाता है।
हम इस समस्या के बारे में लंबे समय से जानते हैं, जिसने खाद्य पदार्थ आंदोलन को जन्म दिया है। यह आंदोलन विशेष रूप से यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में चलाया गया है। यह आंदोलन भोजन की बर्बादी न करने के बारे में है जो दुनियाभर में काफी बड़ा मुद्दा है।
हालांकि इन अभियानों का अस्तित्व सराहनीय है, लेकिन यदि हम खाद्यान्न की बर्बादी को कम करना चाहते हैं तो हमारे सामने एक और बड़ी चुनौती विपणन की है।
स्पष्ट रूप से कहें तो, इसका मतलब है प्रतिकूल या मध्यम मौसम की घटनाओं से प्रभावित होने वाली उपज। सूखा ऐसी जलवायु घटनाओं का एक उदाहरण है, जिसके वैश्विक जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप और अधिक तीव्र होने की आशंका जताई गई है।
जलवायु से प्रभावित उत्पाद “अपूर्ण” खाद्य पदार्थ जैसा दिखता है क्योंकि यह अक्सर छोटा, विकृत या सतही रूप से अपूर्ण होता है।
अपूर्ण उत्पाद को ऐसे उत्पाद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो दिखने में बाजार के मानकों पर खरा नहीं उतरता।
जलवायु से प्रभावित उपज का स्वाद और बनावट काफी भिन्न हो सकती है। सूखे के प्रभाव के कारण सेब अधिक मीठे और दानेदार हो सकते हैं, मिर्च अधिक तीखी और प्याज अधिक तीखे हो सकते हैं। हल्के या मध्यम सूखे के मामले में, ऐसी उपज खाने योग्य होती है।
हाल के हमारे शोध से कुछ असहज बातों का पता चलता है। कई उपभोक्ता जलवायु प्रभावित उत्पादों से पूरी तरह बचना पसंद करते हैं और जब कीमत एक कारक है, तो वे छूट के बिना इसे नहीं चुनेंगे।
लेकिन हमारा शोध यह भी सुझाव देता है कि किस तरह से ऐसी उपज की खरीद को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
हमारा शोध
हमने ताजा फल और सब्जियां खरीदने वाले उपभोक्ताओं के साथ दो अलग-अलग विकल्पों का इस्तेमाल किया। एक नमूना ऑस्ट्रेलियाई छात्रों से लिया गया, जबकि दूसरा व्यापक ऑस्ट्रेलियाई आबादी के सदस्यों से लिया गया।
प्रतिभागियों को सेब के आठ अलग-अलग विकल्प दिखाए गए, जिन्हें मिठास और आकार समेत विभिन्न विशेषताओं के साथ वर्णित किया गया था।
सेबों पर कीमत का टैग भी लगा था और यह भी जानकारी थी कि वे सुपरमार्केट या किसान मंडियों में बेचे गए हैं।
उत्तम उत्पाद को प्राथमिकता
हमने पाया कि जब सेब का आकार और बनावट महत्वपूर्ण होती है और किसानों के प्रति सहानुभूति कम होती है, तो उपभोक्ता जलवायु-प्रभावित उपज से बचते हैं। इसके बजाय उन्होंने उच्च कीमतों पर अप्रभावी विकल्पों को चुना (मिठास पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं देखा गया)।
यह निष्कर्ष भले ही आश्चर्यजनक न हो, लेकिन फिर भी यह चिंता का विषय है। यदि किसान जलवायु से प्रभावित उपज को स्प्रेड, जैम या पशु आहार में नहीं बदल सकते तो यह आपूर्ति श्रृंखला में शामिल नहीं हो पायेगा और बर्बाद हो सकता है।
जब उपभोक्ताओं के लिए कीमत महत्वपूर्ण थी तो उन्होंने किसानों के प्रति अपनी सहानुभूति की परवाह किए बिना जलवायु-प्रभावित उपज को चुना। लेकिन वे इसके लिए केवल रियायती मूल्य चुकाने को तैयार थे।
भविष्य में चरम मौसम की घटनाएं कम होने का अनुमान नहीं है, इसलिए जलवायु-प्रभावित उत्पादन के बने रहने की संभावना है। यदि हम चाहते हैं कि उपभोक्ता इसे अपनाएं तो हमें इसके अलग स्वाद और बनावट के बारे में बातचीत करनी होगी और इस बात पर पुनर्विचार करना होगा कि हम क्या इसे स्वीकार करने को तैयार हैं।
(द कन्वरसेशन) देवेंद्र शफीक नरेश
नरेश
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