आंखों की रोशनी गंवाने के बावजूद जूडो खेलने पर गांव वाले ताने मारते थे: परमार |

आंखों की रोशनी गंवाने के बावजूद जूडो खेलने पर गांव वाले ताने मारते थे: परमार

आंखों की रोशनी गंवाने के बावजूद जूडो खेलने पर गांव वाले ताने मारते थे: परमार

:   Modified Date:  September 11, 2024 / 06:24 PM IST, Published Date : September 11, 2024/6:24 pm IST

(फिलेम दीपक)

नयी दिल्ली, 11 सितंबर (भाषा) दृष्टिबाधित लेकिन बेहद सकारात्मक भारतीय पैरालंपिक पदक विजेता कपिल परमार को आठ साल पहले पैरा जूडो शुरू करने पर अपने गांव के लोगों से लगातार ताने सुनने पड़े लेकिन इतिहास रचने वाले इस पैरालंपियन का इससे जीवन में कुछ महत्वपूर्ण करने का संकल्प और मजबूत हुआ।

चौबीस वर्षीय परमार जूडो में भारत के पहले पैरालंपिक पदक विजेता बने जब उन्होंने चार सितंबर को पेरिस खेलों में पुरुषों के 60 किग्रा (जे1) वर्ग में कांस्य पदक जीता।

परमार ने पीटीआई को दिए साक्षात्कार में कहा, ‘‘जब मैंने 2017 में पैरा जूडो शुरू करने का फैसला किया तो मेरे गांव के कुछ लोगों ने मुझे ताना मारा कि मैं देख नहीं सकता इसलिए मैं यह खेल कैसे खेलूंगा, लेकिन आप हमेशा इन तानों के कारण ही आगे बढ़ते हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘आपको इन्हें (तानों को) सकारात्मक तरीके से लेना चाहिए, उनके तानों को चुनौती में बदलना चाहिए और उन्हें गलत साबित करना चाहिए। अब मेरी उपलब्धियों के बाद, वे मेरा समर्थन करते हैं और कहते हैं कि मैंने पैरा खेलों को चुनकर सही किया।’’

परमार ने कहा, ‘‘अगर आपके पास सहानुभूति रखने वाले और समर्थक हैं, तो नफरत करने वाले भी होंगे। जीवन ऐसा ही है। एक तरह से मुझे लगता है कि नफरत करने वालों ने मुझे जीवन में आगे बढ़ाया।’’

पैरा जूडो में जे1 वर्ग उन खिलाड़ियों के लिए है जिन्हें बिल्कुल भी नहीं दिखता या फिर बहुत कम दिखता है।

एक टैक्सी चालक के बेटे परमार को नौ साल की उम्र में मध्य प्रदेश के सीहोर के पास अपने गांव के खेतों में पानी के पंप से पानी लाने की कोशिश करते समय बिजली का झटका लगा जिसके बाद उनकी आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होती गई।

उन्हें एक साथी ग्रामीण ने बेहोशी की हालत में पाया और उन्हें भोपाल के अस्पताल में भर्ती कराया गया। उबरने की धीमी और दर्दनाक प्रक्रिया से पहले वह छह महीने कोमा में रहे।

परमार ने कहा, ‘‘जब मैं कोमा से बाहर आया और ठीक हुआ तो डॉक्टर ने कहा कि मुझे कुछ गतिविधि करनी चाहिए ताकि मेरा वजन नहीं बढ़े। मुझे नहीं पता कि मेरा वजन कैसे बढ़ गया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक दिन पैरालंपिक में पदक जीतूंगा।’’

अपने परिवार के सीमित आर्थिक साधनों के कारण परमार को अपने जीवन के एक पड़ाव पर खुद का खर्च चलाने के लिए अपने चार भाइयों में से एक के साथ चाय की दुकान चलानी पड़ी। शुरुआत में उन्हें टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए अन्य लोगों से वित्तीय मदद मांगनी पड़ी।

बाद में उनके प्रशिक्षण का ध्यान लखनऊ में भारतीय दृष्टिबाधित और पैरा जूडो अकादमी द्वारा रखा गया जहां वह वर्तमान में ट्रेनिंग करते हैं।

यह पूछे जाने पर कि उन्होंने पैरा जूडो क्यों चुना, उन्होंने कहा, ‘‘मेरे साथ हुए हादसे से पहले मैं कुश्ती खेलता था इसलिए मैंने जूडो को चुना क्योंकि यह एक जैसे हैं और मुझे लगा कि यह मेरे लिए उपयुक्त हो सकता है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘बाद में मुझे पैरालंपिक के बारे में पता चला। मुझे लगा कि मैं पैरालंपिक में पदक जीत सकता हूं। इस तरह मैं अपने माता-पिता और देश के लिए कुछ महत्वपूर्ण कर सकता हूं।’’

पिछले साल एशियाई पैरा खेलों में रजत पदक जीतने वाले परमार ने कहा, ‘‘मैंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतना शुरू कर दिया। मैं पिछले एक साल से दुनिया का नंबर एक खिलाड़ी हूं। इसलिए मुझे पेरिस पैरालंपिक में पदक जीतने का विश्वास था।’’

भाषा सुधीर नमिता

नमिता

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)