~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
भारतीय इतिहास के विस्मृत पन्नों में एक वीराङ्गना नारी – अपने अपूर्व तेज एवं राष्ट्रभक्ति की अभूतपूर्व चेतना के रूप में विद्यमान है। उसका समूचा जीवन स्वातन्त्र्य यज्ञ की बलिवेदी में समर्पित हो गया। इतिहास ने भले उसके साथ अन्याय किया। लेकिन उसकी वीरता की गाथा पीढ़ी- दर पीढ़ी किंवदन्तियों और लोकगाथा के रूप में दर्ज हो गई। स्वातन्त्र्य समर की आहुति बनने वाली वह वीराङ्गना नारी और कोई नहीं बल्कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की दुर्गा सेना की प्रमुख झलकारी बाई थीं।
22 नवम्बर 1830 को झाँसी के निकट भोजला गांव में पिता सदोवर सिंह व माता जमुना देवी के घर झलकारी बाई का जन्म हुआ था। नियति उस बेटी को एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी देने वाली थी। इसलिए जीवन भी उसकी कठोर परीक्षा ले रहा था। बचपन में माता का साया उसके सिर से उठ गया। और झलकारी बाई मातृत्व की छाँव से वंचित हो गई। लेकिन नियति ने उन्हें जिस महान उद्देश्य के लिए चुना था। झलकारी बाई उस साधना में जुट गई। परम्परागत जनजाति में कोल/ कोरी ( कोली) परिवार की विरासत को सम्हालने वाली झलकारी बाई ने — घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र चलाने का कौशल सीखना शुरू कर दिया। वे इसमें पारंगत हो गईं। बाल्यकाल में बाघ का वध करने का किस्सा भी उनकी वीरता के सन्दर्भ में लोक स्मृतियों में उनके साथ जुड़ा हुआ है।
झलकारी बाई के विषय में ठीक ही कहा गया है कि —
बुंदेल खंड में जन्मी हैं, ना रानी, ना महारानी हैं
दब गई जो इतिहास में, यह उस वीरांगना की कहानी है।
लेकिन उस वीराङ्गना झलकारी बाई की अपनी गौरवपूर्ण गाथा है। झलकारी बाई ने स्वातन्त्र्य समर में अपने शौर्य एवं पराक्रम का वह कीर्तिमान रचा है जिसे बड़े से बड़े सूरमा नहीं कर पाए। जब बात झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आती है तो उनके साथ साये की भांति झलकारी बाई का नाम स्मरण में आ ही जाता है। ऐतिहासिक प्रसंग के अनुसार – झलकारी बाई गौरी पूजा के दौरान अन्य महिलाओं के साथ रानी लक्ष्मीबाई को सम्मान देने झांसी के किले में गई हुईं थी। रानी लक्ष्मीबाई ने जब उन्हें देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गईं। उनके विस्मित होने का कारण यह था कि -रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की शक्ल एकदम मिलती जुलती थी। झलकारी हमशक्ल होने के साथ साथ बहादुर भी थीं। रानी लक्ष्मीबाई ने उनके बहादुरी के किस्से सुने। फिर उन्हें अपनी ‘दुर्गा सेना’ में शामिल कर लिया। आगे चलकर झलकारी बाई — रानी लक्ष्मीबाई की प्रिय सहेली बन गईं।
समय अपनी करवट बदल रहा था। राष्ट्र के प्रथम स्वातन्त्र्य समर का बिगुल बजने ही वाला था। अंग्रेज सरकार – अपने दमन की पराकाष्ठाओं की अति किए हुई थी। इसी समय लार्ड डलहौजी ने ‘हड़प नीति’ लागू करते हुए भारतीय राजाओं को दत्तक पुत्र लेने पर रोक लगा दी थी। 10 मार्च 1857 को मेरठ में मंगल पाण्डेय के नेतृत्व में धधकी स्वातन्त्र्य की चिंगारी झांसी में ज्वाला बनकर धधकने वाली थी।
रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव की मृत्यु हो जाने के पश्चात अंग्रेजों की कुत्सित नजर झांसी पर पड़ गई थी। लेकिन झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी’ कहते हुए अंग्रेजों से युद्ध करने को तैयार हो गईं। उन्होंने अपनी सेना को हर मोर्चे पर तैयार किया और अंग्रेजों का प्रतिकार करने के लिए मोर्चे पर डट गईं । युद्ध की रणनीति बनाई जा रही थी। युद्ध के लिए मोर्चे तैनात हो रहे थे। लेकिन उनकी सेना के ही एक गद्दार सैनिक — दूल्हेराव ने विश्वासघात किया। और किले के सुरक्षित द्वार को अंग्रेजी सेना के लिए खोल दिया। इससे ब्रिटिश सेना किले में प्रवेश कर गई लेकिन लक्ष्मीबाई के रणबांकुरे यहां भी तैयार थे। द्वार की रक्षा करते करते झलकारी बाई के पति पूरन कोली वीरगति को प्राप्त हो गए। पति की मृत्यु का शोक मनाने के स्थान पर झलकारी बाई ने राज्य रक्षा के कर्त्तव्य को निभाया।
वो रानी लक्ष्मीबाई की वेश – भूषा धारण कर युुद्धक्षेत्र में डट गईं। उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को कहा था कि – आप पुत्र — दामोदर राव को लेकर सुरक्षित स्थान पर निकल जाइए। मैं अंग्रेजों से लड़ने के लिए निकल रही हूं। इधर झलकारी बाई अंग्रेजी सेना का नरसंहार करती हुई युुद्ध का रूख मोड़ रहीं थी। उधर लक्ष्मीबाई दूसरे मोर्चे पर रणनीति पूर्वक नेतृत्व की बागडोर सम्हाले रहीं।
झलकारी बाई अपने शौर्य एवं पराक्रम से सबको अचम्भित किए हुईं थी। युुद्ध करते हुए उन्हें अंग्रेज़ी सेना ने चारों ओर से घेर लिया । उन्हें बन्दी बना लिया गया। तत्पश्चात अंग्रेजी सेना के जनरल ह्यूरोज के सामने उन्हें प्रस्तुत किया गया। जहां एक सैनिक ने उनकी पहचान उजागर कर दी। अंग्रेजों को जब पता चला कि – ये लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि दुर्गा सेना की नायिका झलकारी बाई हैं। यह जानकर अंग्रेजों के होश उड़ गए। युद्ध के दौरान उनके बंदी बनाए जाने और वीरगति को लेकर इतिहास में मतैक्य हैं। सन्दर्भ ऐसा आता है कि — बंदी बनाए जाने के पश्चात ह्यूरोज ने उनसे पूछा था कि – उनके साथ क्या व्यवहार किया जाना चाहिए ? उस वीराङ्गना झलकारी बाई का एक ही उत्तर था — मुझे फाँसी चाहिए। इस कथन से ह्यूरोज प्रभावित हुआ था और उसने उन्हें रिहा कर दिया था। इस धारा में एक ऐसा प्रसंग भी जुड़ता है कि झलकारी बाई की वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज ने कहा भी था कि —
“अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो चार महिलाएँ और हो जाएं तो अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ेगा। भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।”
साथ ही इतिहास में तथ्यात्मक रूप से यह निर्धारित नहीं हो सका कि – उनकी वीरगति कैसे हुई। अंग्रेजों द्वारा फांसी दिए जाने से। कारावास में मृत्यु से ? याकि युद्धभूमि में ही अंग्रेजों से युद्ध करते – करते झलकारी बाई वीरगति को प्राप्त हो गईं। लेकिन बर्बर – दमनकारी अंग्रेजों की प्रवृत्ति को देखकर यही लगता है कि — उन्होंने झलकारी बाई को रिहा तो नहीं ही किया होगा। इतिहासकारों का यह भी मानना है कि — झलकारी बाई को युद्ध के दौरान 04 अप्रैल, 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। इस सन्दर्भ में यह उल्लेख भी मिलता है कि — “युद्धरत झलकारी बाई को बंदी बनाकर अंग्रेज अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया गया। जहाँ उन्होंने अंग्रेज अधिकारी से सिंहनी की भाँति दहाड़ते हुए कहा कि – झाँसी से वापस लौट जाओ। उस अंग्रेज अधिकारी ने फौजी मानहानि व बगावत का आरोप सिद्ध किया और देशभक्त वीरांगना झलकारी बाई को तोप के मुँह से बाँधकर उड़वा दिया।”
झलकारी बाई के अभूतपूर्व पराक्रम ने भारतीय स्वातन्त्र्य समर में एक ऐसा इतिहास रचा। जो यह बतलाता है कि — भारतीय नारी जब अपनी शक्ति और शौर्य के साथ रणक्षेत्र में उतरती है तो वह शत्रुओं का समूल नाश करने की सामर्थ्य रखती है। पति की मृत्यु के उपरान्त शोक के स्थान पर झलकारी बाई ने राज्य पर आए संकट के लिए बलिदानी बन जाना स्वीकार किया। उन्होंने अपने उस महान निर्णय से इतिहास की धारा मोड़ दी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि – स्वाधीनता प्राप्त करना – जन जन का प्रथम कर्त्तव्य है।
भविष्य में झाँसी को लेकर परिणाम भले ही, कुछ रहा हो। लेकिन जीते जी झलकारी बाई ने — रानी लक्ष्मीबाई का वेश धरकर जिस प्रकार से अंग्रेजों से लोहा लिया।फिर मातृभूमि की रक्षा में अपना आत्मोत्सर्ग कर दिया। यह त्याग और बलिदान का पुरुषार्थ भारतीय नारी के आदर्श एवं वीरता का दर्शन करवाता है। उनका ध्येय ही झाँसी की स्वतन्त्रता को बनाए रखना था और इस उद्देश्य ने ही उन्हें महानता के सिंहासन पर आरूढ़ करवाया। वीराङ्गना झलकारी बाई के साहस – शौर्य पराक्रम की गाथाएं और उनका अप्रतिम त्याग – बलिदान राष्ट्र के लिए आदर्श के रूप में चिरवन्दनीय रहेगा । इतिहास के विस्मृत पन्नों को — लोक की स्मृति के सहारे पुनश्च पलटा जाएगा और वीराङ्गना झलकारी बाई — रानी लक्ष्मीबाई के प्रतिबिम्ब की भाँति राष्ट्र जीवन का आदर्श सिखाएंगी।
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)
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