~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
अपने शाश्वत स्वरुप और सत्य के अधिष्ठान पर खड़ी सनातनी संस्कृति की झंकार सर्वत्र गुंजित होती है। यह हिन्दू संस्कृति का वैशिष्ट्य है कि वह विश्व की सबसे अर्वाचीन संस्कृति के रूप में अधिष्ठित और प्रतिष्ठित है। भारतीय संस्कृति का सेमेटिक मजहबों की भांति न तो कोई एक ग्रंथ है । न कोई प्रारम्भकर्ता व्यक्ति। यह अपने विराट और वैविध्यपूर्ण स्वरूप के साथ अपना साक्षात्कार कराती है। न तो भारतीय संस्कृति में एक देव पूजा की बाध्यता है और न ही किसी एक पंथ प्रणाली, किताब को पूजने की शर्त। सनातन हिन्दुत्व की कोख से जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने ढंग से – जीवन के आचार, विचार का निर्धारण करने के लिए स्वतन्त्र है। अपनी पूजा पद्धति, परम्पराओं को मानने या न मानने के लिए भी स्वतन्त्र है। इन सबके बावजूद भी वह हिन्दू कहलाता है क्योंकि स्वतन्त्र चिन्तन – सत्यान्वेषण हिन्दुत्व का मूल है। इसी हिन्दू संस्कृति ने विश्व को बौध्द, जैन और सिख धर्म/ पंथों का दर्शन दिया। प्रकृति के साथ तादात्म्य और एकात्म स्थापित करने वाला हिन्दू मानष विश्व शांति का मन्त्र देने वाला और प्राणि मात्र के कल्याण की भावना का उद्गाता है।अनेकानेक षड्यंत्रों ,आक्रमणों , कुठाराघातों के बावजूद भी भारतीय संस्कृति जीवंत है तो वह इसीलिए कि विविधता और बहुलता में ‘एकात्मता’ इसके मूल में है। अपनी इसी बहुलतावादी सांस्कृतिक जीवटता के इतिहास के साथ ही भारत के सांस्कृतिक सूर्य का रथ गतिमान है।
भारत के इसी स्वरुप को प्रतिबिंबित करता है यहां का जनजातीय समाज और उनकी प्रकृति से एकात्म परम्पराएं।जनजातीय समाज का अधिकांशतः निवास स्थान भले ही वनांचलों में रहा हो। किन्तु जनजातीय समाज सर्वदा सनातन -हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग के रूप में एकात्मता का संगीत सुनाता आया है। यह अलग बात है कि सभ्यताओं के विकास और लगातार आक्रमणों के कारण जनजातीय समाज के स्थान परिवर्तन हुआ।उनकी परम्पराओं ,संस्कृति ,विवाह, रीति-रिवाजों ,पूजा पध्दति, बोली और कार्यशैली में आंशिक अन्तर दिखाई देता है। किन्तु संविधान में अनुसूचित सनातन हिन्दू समाज के जनजातीय समाज और गैर जनजातीय समाज का मूल और केन्द्र हिन्दुत्व की धुरी ही है।
वैदिक साहित्य की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो ऋग्वैदिक कालीन समाज जनजातीय समाज के स्वरूप के साथ ही आगे बढ़ रहा था। इस सन्दर्भ में यदि हम किसी भी जनजातीय समाज में देखें तो यह साफ-साफ परिलक्षित होता है कि उनकी पूजा पध्दतियां गैर जनजातीय समाज के समान ही हैं। केवल इनके स्वरुप अथवा नामों में अंतर देखने को मिलता है। जनजातीय समाज में भगवान शिव का त्रिशूल ,डमरू ,स्वास्तिक, देव और देवी की उपासना , श्रीफल (नारियल) ,तुलसी ,तांत्रिक क्रियाओं में नींबू-मिर्च ,गोबर से लिपाई-पुताई इत्यादि के प्रयोग होते हैं। क्या ये प्रतीक किसी भी प्रकार से हिन्दू समाज से अलग अस्तित्व को दर्शाते हैं? इसी प्रकार जनजातीय समाज जिन देवताओं को महायदेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के स्वरूप में स्मरण और पूजन करते हैं । उन्हीं देवताओं को गैर जनजातीय समाज शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से जानते और पूजते हैं।
उत्तर -पूर्व भारत में सीमांत जनजातियों की भाँति ‘मिशमिश’ जनजाति के लोग सूर्य व चन्द्रमा की पूजा ‘दान्यी-पोलो’ के स्वरूप में करते हैं। इस पर उनका मानना है कि — सूर्य और चन्द्र सत्य के पालनकर्ता भगवान हैं। ठीक इसी परम्परा को अरुणाचल प्रदेश की लगभग सभी पच्चीसों जनजातियां मानती हैं। सनातन हिन्दू धर्म में प्रकृति को माँ के स्वरूप में पूजने और पंच तत्वों की पूजन परंपरा सर्वत्र देखने को मिलती है।प्रकृति के तत्वों यथा — भू, जल,अग्नि, आकाश ,सूर्य, चन्द्र ,नदी-तालाब, समुद्र ,वृक्षों यथा-पीपल ,नीम ,तुलसी ,आम , गुग्गुल ,बरगद इत्यादि की पूजा करने की परम्पराएँ समूचे भारतीय समाज में देखने को मिलती हैं। क्या यह सब हमारी जनजातीय संस्कृति के अभिन्न अंग एवं मूलस्वरूप को नहीं दर्शाती हैं? इसी प्रकार धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञ वेदी का निर्माण वैदिक कालीन समाज में रहा है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से चिन्हों यथा- यज्ञ वेदी ,पशुपति की मूर्ति प्राप्त होना। भारतीय संस्कृति के ही तो प्रमाण हैं जिनके ध्वंसावशेष समय – समय पर देश- विदेश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते रहे हैं।
भारत के जनजातीय समाज में कुल देवी-देवताओं के पूजन की पध्दति और पूजन में हवन (होम) किया जाना। हिन्दुत्व की पूजन प्रक्रिया का ही हिस्सा हैं जो सनातन की अक्षुण्ण अखण्ड परम्पराओं की द्योतक हैं। चाहे जनजातीय समाज के द्वारा नागों की पूजा करना हो। याकि नागों के भित्तिचित्र, शैल चित्रों को उकेरना हो । ये सभी चीजें गैर जनजातीय समाज में भी हैं। नागपंचमी का त्यौहार इसी का प्रतीक है। इस दिन हिन्दू समाज नाग देवता की पूजा कर अपने घरों के मुख्य द्वार में नाग देवता का प्रतीकात्मक चित्रण करते हैं। लोकमंगल की कामना करते हैं। यह वही विशुद्ध सांस्कृतिक विरासत ही तो है जिसे संपूर्ण हिन्दू समाज हर्षोल्लास के साथ मनाता है।
यदि हम पश्चिम के आधुनिक इतिहास (हिस्ट्री) के बोध से अलग होकर देखें। अपने सनातन कालक्रम की ओर दृष्टिपात करें तो सनातन हिन्दू संस्कृति अपनी साहचर्यता ,बन्धुता और समन्वय के साथ विश्व की अनूठी संस्कृति की मिसाल के तौर पर स्थापित है। सनातन परंपरा में ईश्वरीय अवतारों ,संत-महात्माओं की जाति देखने की परंपरा कभी नहीं रही है। किन्तु जब इस पर अध्ययन किया जा रहा है तो उसका विभिन्न कोणों से विश्लेषण करना आवश्यक ही प्रतीत होता है।
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के वनवास काल में चित्रकूट से दण्डकवन और लंका युध्द से विजय तक उनके सहयोगी वनांचलों में निवास करने वाला जनजातीय समाज ही रहा है। इस कड़ी में श्रृंग्वेरपुर के राजा निषाद राज गुह ने भगवान के वनवास की जानकारी लगते ही अपना राज्य अपने आराध्य को सौंपने की बात कही। किन्तु भगवान राम ने उन्हें मित्र की पदवी देकर अपने समतुल्य बतलाया । मैत्रीबोध का श्रेष्ठतम् मानक स्थापित किया। फिर चाहे गंगा पार उतारने के समय का केवट और भगवान राम का मधुर ,स्नेहिल संवाद हो। याकि भगवान राम की भक्ति में लीन शबरी भीलनी माता के जूठे बेर फल का सेवन करना हो। उन्हें माँ के तौर में प्रतिष्ठित करना हो । यह सब सनातन हिन्दू संस्कृति की ही विशेषता है। माता शबरी को आज भी समूचा हिन्दू समाज माँ के रुप में पूजता है। भला, इससे अनूठा -अनुपम उदाहरण विश्व में और कहाँ मिलेगा? यही तो सनातन संस्कृति और उसकी सदा प्रवाहित होने वाली स्नेह ,सामंजस्य ,श्रेष्ठता की अविरल धारा है। जो अमृत का संचय कर राष्ट्र को पोषित कर रही है।
सनातन संस्कृति के महानायकों यथा- निषादराज गुह ,माता शबरी ,बिरसा मुंडा , टंट्या भील, जात्रा भगत ,कालीबाई ,गोविन्दगुरू ,ठक्कर बापा ,गुलाब महाराज, राणा पूंजा,भीमा नायक ,भाऊसिंह राजनेगी और राजा विश्वासु भील हों । याकि तुंडा भील, रानी दुर्गावती ,सरदार विष्णु गोंड जैसे अनेकानेक वीर-वीरांगनाएं हों। इन्होंने सनातन हिन्दुत्व की रक्षा और राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। उस महान परम्परा के संवाहकों के वंशजों को हिन्दू समाज से अलग बतलाना षड्यंत्र नहीं तो और क्या हो सकता है ? इसी प्रकार जनजातीय समाज को विभिन्न तरीकों से उनकी सांस्कृतिक विरासत से काटने के षड्यंत्र निरंतर हो रहे हैं। जो जनजातीय समाज के गौरवशाली अतीत और महान पुरखों की परिपाटी को नष्ट कर रहे हैं। क्या स्वप्न में भी कल्पना की जा सकती है कि जनजातीय समाज ,सनातन हिन्दू धर्म से अलग है ? यदि जनजातीय समाज हिन्दू संस्कृति से अलग होता तो न तो एकात्मकता के सन्दर्भ मिलते । न ही जनजातीय समाज के महान पूर्वज कन्वर्जन (धर्मान्तरण) के विरोध और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना प्राणोत्सर्ग करते।
उपनिवेशवाद की त्रासदी से से चले आ रहे षड्यंत्रों के बावजूद भी जनजातीय समाज हमेशा सनातन हिन्दू समाज का अविभाज्य मूल अंग रहा आया है । जनजातीय समाज के बिना सम्पूर्ण हिन्दू समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। आखिर वह कौन सा केन्द्र है? जब जनजातीय समाज के बंधु-बांधव कष्ट में होते हैं । उनके साथ षड्यंत्र होते हैं ,तब समूचा हिन्दू समाज स्वयं को पीड़ित और चोटिल समझता है। क्या यह अपनेपन की पीड़ा नहीं है ? यदि जनजातीय समाज को कोई हिन्दू समाज से अलग करने की कुचेष्टा करता है तो शेष हिन्दू समाज का रक्त क्यों खौल उठता है?यह इसीलिए न!क्योंकि वे जनजातीय समाज के हिन्दू बंधु- बान्धव हैं। जनजातीय समाज, सनातन हिन्दू समाज की परम्परा के वे संवाहक हैं, जो सदैव सनातन हिन्दुत्व के लिए प्राणोत्सर्ग करने का साहस रखते रहे आए हैं।
विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा का जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास उसी एकात्मता का साक्षी है। वहां भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी। उन्होंने ही नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी। इसी तरह भुवनेश्वर के भगवान लिंगराज को बाड जनजाति के पुजारियों द्वारा ही स्नान करवाया जाता है। कुल्के एवं रॉथरमुंड नामक विद्वानों ने अपने विभिन्न शोधों एवं अध्ययनों से पाया कि — “कुरुबा, लंबाडी,येरूकुल,येनाडी एवं चेंचू जनजातियों के तिरुपति के भगवान वेंकटेश्वर से गहरे सम्बन्ध हैं।”
इसी तरह दक्षिण मेघालय में मासिनराम के निकट मावजिम्बुइन गुफाएं हैं । यहां गुफा की छत से टपकते हुए जल मिश्रित चूने के जमाव से शिवलिंग बना हुआ है । ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार वहां लगभग 13 वीं शताब्दी से बहुमान्य एक मान्यता प्रचलित है। उसके अनुसार जयन्तिया पर्वत की गुफा में स्थापित ‘हाटकेश्वर नामक शिवलिंग’ वहाँ की रानी सिंगा के समय से विराजमान हैं। इसी हाटकेश्वर धाम में जयन्तिया जनजाति समाज के लोग प्रति वर्ष ‘शिवरात्रि महोत्सव’ बड़े ही हर्षोल्लास के साथ उत्साहपूर्वक मनाते हैं।
वहीं वैष्णो देवी और केरल के भगवान अय्यप्पम से जनजातीय समाज के आत्मिक एवं आध्यात्मिक सम्बन्ध की प्रतिष्ठा है। जनजातीय समाज भगवान नरसिंम्ह की स्तंभीय शांकवीय प्रतिमाओं को पूजते हैं। इसी प्रकार विन्ध्य का जनजातीय समाज, हिन्दू परम्पराओं, पूजा पध्दतियों का लगभग उसी तरह पालन और निर्वहन करता है ; जिस प्रकार शेष हिन्दू समाज करता है । छ.ग.का रामनामी समाज तो भगवान राम के लिए समर्पित होने के लिए ही जाना जाता है । रामनामी समाज का विस्तार छ.ग.,म.प्र. और झारखंड के विविध क्षेत्रों में है। रामनामी समाज पूर्णरूप राममय है । रामनामी समाज के बन्धु अपने सम्पूर्ण शरीर में राम नाम का गोदना गुदवा लेते हैं। मोरपंख धारण करना,राम नाम संकीर्तन करना। यह इस बात का प्रमाण है कि – भगवान राम के प्रति अगाध श्रध्दा रखने वाला यह समाज सनातन हिन्दू धर्म का वटवृक्ष है।
इस प्रकार अनेकानेक उदाहरणों और जनजातीय समाज की पध्दति ,सनातन हिन्दू धर्म के लिए योगदान देने की शौर्य की कहानियां सर्वत्र व्याप्त है। इन समस्त सन्दर्भों से यही सिद्ध होता कि जनजातीय समाज हिन्दू परम्पराओं का आदि प्रवर्तक है। राष्ट्र के पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण चारो दिशाओं में निवास करने वाला जनजातीय समाज – सनातन हिन्दू धर्म की धर्मध्वजा का पालन करने वाला है। बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति भी नहीं होगी कि – जिस कठोरता और नियमबद्धता के साथ जनजातीय समाज सनातन हिन्दू धर्म का पालन करता है। अपनी परंपराओं के के प्रति दृढ़ रहता है। उस अनुरूप शेष गैर जनजातीय हिन्दू समाज थोड़ा कमतर ही सिध्द होता दिखता है। जनजातीय समाज विशुद्ध तौर पर सनातन हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। जो सनातनी मूल्यों एवं धर्मनिष्ठा के लिए जाने जाता है। जो अपनी परंपरागत विविधता के साथ उत्सवधर्मिता और लोक का मानक है।
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)
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