जनजातीय गौरव दिवस : राष्ट्रीय अस्मिता और कृतज्ञता ज्ञापन का महापर्व
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का 150 वाँ जयंती वर्ष भारत के सांस्कृतिक क्षितिज में अपनी एक नई आभा के साथ 15 नवंबर 2024 को प्रवेश करेगा। एक ऐसे योद्धा की जयंती जिसने अपने जीवन के मात्र 25 वर्षों में अपनी यशस्वी काया गढ़ ली। एक ओर जन-जन के उद्धारक बने तो दूसरी ओर क्रूर ब्रिटिश सरकार और ईसाई मिशनरियों के काल के रूप में प्रकट हो गए। उलगुलान की क्रान्ति के पर्याय भारत के स्वत्व के शीर्ष जनजातीय समाज के एक ऐसे महानायक जिनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए होम हो गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 नवम्बर 2021 को बिरसा मुंडा की जयंती पर भोपाल के जम्बूरी मैदान से —
“जोहार मध्यप्रदेश! राम राम सेवा जोहार! मोर सगा जनजाति बहिन भाई ला स्वागत जोहार करता हूँ। हुं तमारो सुवागत करूं। तमुम् सम किकम छो? माल्थन आप सबान सी मिलिन,बड़ी खुशी हुई रयली ह। आप सबान थन, फिर सी राम राम । ” इस सम्बोधन के साथ भारत के विकास में जनजातीय समाज की समृध्द विरासत के स्मरण लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का शुभारम्भ किया था।
इस वर्ष देश चौथा जनजातीय गौरव दिवस मनाएगा। जनजातीय गौरव यह किसका प्रतीक है ? क्या है इसके पीछे की भावना ? यदि हम इसका अवलोकन करें तो ध्यान में आता है कि — राष्ट्र के स्वाभिमान का, जन-जन के अभिमान का स्मरण करना। वो स्मरण यानी अपने उन महान पूर्वजों का पुण्य स्मरण करना जिन्होंने अभावों और षड्यंत्रों की त्रासदी के बाद भी अपने ‘स्व’ से समझौता नहीं किया। अपितु राष्ट्र रक्षा और भारतीय संस्कृति के संरक्षण सम्वर्द्धन में अपनी आहुति दे दी। प्राणोत्सर्ग कर दिया। षड्यंत्रों के दुर्दम्य पाशों को काटकर स्वतंत्रता की देवी का तिलक किया। वनांचलों में रहना स्वीकार किया किंतु राष्ट्र रक्षा और मूल्यों के संरक्षण सम्वर्द्धन से पीछे नहीं हटे। जनजातीय गौरव दिवस के पीछे की संकल्पना यही है कि उन राष्ट्रभक्तों – राष्ट्रदूतों का पुण्य स्मरण किया जाए। उनका अनुकरण किया जाए जिन्हें स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में दर्ज ही नहीं किया गया। दर्ज भी किया गया तो फौरी तौर पर इतना ही नहीं बल्कि इसके विपरीत इन महान जनजातीय वीर-वीरांगनाओं का चरित्र चित्रण भी गरिमापूर्ण नहीं किया गया। पाठ्यक्रम तो दूर की कौड़ी रहा । वर्षों तक सत्ता के केन्द्र में रही कांग्रेस सरकार ने उनका नामोल्लेख करना तक उचित नहीं समझा। जनजातीय समाज से आने वाले महापुरुषों और उनसे जुड़े स्थानों के संरक्षण सम्वर्द्धन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। उनके नाम पर संस्थानों/ स्थानों के नामकरण तो कांग्रेस सरकार में कोरी कल्पना ही सिद्ध हुए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गत 10 वर्षों के कार्यकाल में ‘जनजातीय गौरव दिवस ‘ की शुरुआत एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय निर्णय है। यह केवल एक औपचारिकता नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों को जनजातीय समाज के गौरव की पुनर्स्थापना के महत् संकल्प के रूप में उभरा है। इसके पीछे भारतीय इतिहास में जनजातीय समाज के नायक/ नायिकाओं के योगदान। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनके अभूतपूर्व त्याग, बलिदान सहित राष्ट्र के विकास में जनजातीय समाज के सांस्कृतिक अवदान को रेखांकित करने का भाव समाया हुआ है। उनके नवीन विकास की आशा- आकांक्षाओं को साकार करने की दूरदृष्टि दिखती है। जनजातीय समाज में पृथकता की भावना जगाने वालों के विरुद्ध सत्याग्रह – उलगुलान क्रान्ति का संदेश झलकता है। धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा के बारे में प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं —
“जनजातीय गौरव और संघर्ष के प्रतीक भगवान बिरसा मुंडा की गाथा हर देशवासी को प्रेरणा से भर देती है। झारखंड का कोना-कोना ऐसे ही महान विभूतियों, उनके हौसलों और अनथक प्रयासों से जुड़ा है। अगर हम आजादी के आंदोलन को देखें तो देश का ऐसा कोई कोना नहीं था, जहां जनजातीय योद्धाओं ने मोर्चा नहीं लिया हो । ”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने जनजातीय समाज के लिए कई सारी परिवर्तनकारी योजनाएं चलाई। इतिहास के पुनर्लेखन, पाठ्यक्रमों में जनजातीय समाज के अवदान, संस्थानों/ स्थानों के नामकरण किए। वीरांगना रानी दुर्गावती की 500 वीं जयंती पर देश भर में कार्यक्रम किए। असम के जोरहाट में पूर्वोत्तर के शिवाजी कहे जाने वाले लाचित बोरफूकन की 125 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा स्थापित हुई। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं इसका अनावरण किया। उनकी स्मृति में डाक टिकट और चांदी के सिक्के जारी किए। भोपाल में रानी कमलापति स्टेशन का नामकरण, टंट्या मामा स्टेशन, टंट्या मामा चौक इंदौर, वीरांगना रानी दुर्गावती एयरपोर्ट जबलपुर, राजा शंकर शाह विश्वविद्यालय छिन्दवाड़ा — ये मध्यप्रदेश में नए नामकरणों के उदाहरण हैं। राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान की स्मृति में केन्द्र और राज्य सरकार के संयुक्त प्रयासों से जबलपुर में करोड़ों रूपये की लागत से ‘संग्रहालय सह स्मारक’ निर्माणाधीन है।
इसी दिशा में जनजातीय समाज को राजनीति की मुख्य धारा में लाने और उनके समुचित प्रतिनिधित्व की दिशा में भी महत्वपूर्ण काम हुए। केन्द्रीय कैबिनेट से लेकर बीजेपी शासित राज्यों में जनजातीय समाज का प्रतिनिधित्व इसकी बानगी प्रस्तुत करता है। इतना ही नहीं वर्ष 2022 में भारतीय राजनीति का स्वर्णिम अध्याय लिखा गया। जब जनजातीय समाज से आने वाली बेटी द्रौपदी मुर्मु को बीजेपी ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया और वो ऐतिहासिक मतों से विजयी हुईं। देश की 15 वीं राष्ट्रपति बनीं। यह अपने आप में ऐतिहासिक था। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस ने उनके खिलाफ यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया था। यानी स्पष्ट रूप से जनजातीय गौरव केवर महापुरुषों के पुण्यस्मरण ही नहीं बल्कि उनकी प्रेरणा से सकारात्मकता का सर्जन करना है। नई दृष्टि के साथ नवाचार करते हुए जनजातीय समाज को सशक्त समर्थ बनाने का संकल्प प्रतीत होता है। यह उसी दूरदृष्टि एवं कृतज्ञता के साथ समानता – एकत्व का शंखनाद है जो सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है ।
आगे चलकर दूसरे जनजातीय गौरव दिवस यानी 15 नवंबर 2022 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भगवान बिरसा मुंडा की जन्मस्थली झारखंड के उलिहातू गांव का दौरा किया।वहां के मर्म को विश्व के समक्ष रखा तो 2023 में जनजातीय गौरव दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के रांची में भगवान बिरसा मुंडा जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय का दौरा किया।तत्पश्चात भगवान बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू गांव का दौरा किया। ऐसा करने वाले वो देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। भारत के सांस्कृतिक उन्मेष और जनजातीय समाज के लोकमङ्गल – भाजपा के मूल वैचारिक ढांचे का हमेशा अंग रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से लेकर वर्तमान की मोदी सरकार इस दिशा में सतत् अग्रसर दिखाई देती है। सन् 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ही जनजातीय समाज के उत्थान एवं कल्याण के लिए अलग से ‘जनजातीय मन्त्रालय ‘ का गठन किया गया था।
वास्तव में ये कार्य बहुत पहले हो जाने चाहिए थे लेकिन यह सब संभव नहीं हो पाए। हमारे संविधान में जनजातियों के विकास के लिए पर्याप्त प्रबंध तो संविधान निर्माताओं ने अवश्य किए । किन्तु तत्कालीन सत्ताधीशों ने जनजातीय समाज की दशा एवं दिशा सुधारने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखलाई । उसका परिणाम यह हुआ कि – वनांचलों में निवास करने वाला जनजातीय समाज आज भी विकास की राहें ताकने के साथ साथ ‘ईसाई मिशनरियों’ के निशाने पर बना हुआ है। जहाँ सेवा- सहायता और लालच देकर उनके कन्वर्जन का खुला खेल जा रहा है। कन्वर्जन की त्रासदी जनजातीय अस्मिता के लिए ही नहीं अपितु राष्ट्र के लिए गंभीर समस्या है। यह राष्ट्र के विखंडन का सुनियोजित षड्यंत्र है।
इसी दिशा में कन्वर्टेड लोगों द्वारा जनजातीय समाज के आरक्षण पर डाका डालने के विरुद्ध देश भर में जनजातीय समाज ने डी-लिस्टिंग अभियान चलाए। ताकि जो लोग हिन्दू धर्म से दूसरे मजहबों में कन्वर्ट हो गए हैं। उन्हें जनजातीय समाज से बाहर किया जाए। क्योंकि संविधान में अनुसूचित जनजाति (ST) आरक्षण केवल हिंदुओं के लिए प्रदान किया गया है। यद्यपि जनजातीय समाज में कन्वर्जन के खिलाफ समय के साथ जागृति तो अवश्य आई है। किन्तु आज भी कन्वर्जन के विरुद्ध कोई ठोस रणनीति नहीं दिखाई देती है। फिर भी विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में धरती आबा बिरसा की संतानें इस कुचक्र को अंततोगत्वा अवश्य तोड़ेंगी।
जनजातीय गौरव दिवस प्रत्येक वर्ष अपने नए रंग में दिखाई देता है। भारत के सांस्कृतिक स्वरुप को निर्मित करने में अभिन्न योगदान देने वाले जनजातीय समाज की समृध्द विरासत, ऐतिहासिक योगदान , समरसता, समानता, एकता, समन्वय – साहचर्य के बहुआयामी रंगों – बहुलतावादी संस्कृति से सम्पूर्ण विश्व को एक विशिष्ट पहचान के साथ परिचित करवाने का यह राष्ट्रीय उत्सव बनेगा।यह महापर्व जन-जन के मन में जनजातियों के गौरवपूर्ण इतिहास, सांस्कृतिक विरासत , त्याग, बलिदान और प्रकृति के साथ एकात्मकता के मूल्यों से रुबरु करवाने में मील का पत्थर सिद्ध होने वाला होगा। वस्तुत : भारत एवं भारतीयता के प्राणों में रचा- बसा हुआ जनजातीय समाज – हमारे सांस्कृतिक इतिहास का वह संवाहक है। जो सनातन काल से ही अरण्य को अपना आश्रय बनाकर वहां सृजन के गीत संगीत गाता चला आ रहा है। पद्मश्री से सम्मानित डॉ. कपिल तिवारी का मानना है कि — “वे प्रकृति के साथ इतने अभिन्न हैं कि उनका और प्रकृति का होना एक चीज है। इसीलिए उनकी धार्मिकता का आधार भी प्रकृति ने बनाया है। और उनकी कला का आधार धार्मिक है। और उनकी बौद्धिक संस्कृति का आधार भी मूल रूप से प्रकृति ही है। जो सम्पूर्ण जीवन का आधार है । प्रकृति का अर्थ उनके लिए पूरा होना है — जिस जगत में वे निवास करते हैं। ”
प्रकृति के मध्य प्रकृति की पूजा करने वाला जनजातीय वनवासी समाज विविध क्षेत्रों में अपनी भिन्न भिन्न पहचानों, विविधताओं, कला संगीत ,साहचर्य परम्पराओं के साथ प्रकृति के प्रति असंदिग्ध श्रद्धा एवं समर्पण के साथ सनातन काल से ही अग्रसर रहा आया है। प्रकृति के क्रीड़ाङ्गन में जीवन के सूत्रों को तलाशने वाला जनजातीय समाज भारतीय हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का वह अभिन्न अंग है जिसके बिना सनातन हिन्दू संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है।जनजातीय वनवासी समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति — परम्पराएं , मान्यताएं , कला, वेशभूषा,रहन सहन, खान- पान, उपासना पद्धतियां, विवाह प्रणाली, नृत्य, गीत, गायन, वाद्ययंत्र अपने आप में अनूठी एवं अनुपमेय हैं। सम्पूर्ण भारत के वनांचलों के विविध स्थानों में निवासरत जनजातीय समाज ने सुखमय जीवन के कई सूत्र अपनी जीवन पध्दतियों से दिए हैं। इन सूत्रों से वर्तमान कालखण्ड की पर्यावरणीय समस्याएं स्वत: समाप्त हो सकती हैं। जो प्राप्त है – वही पर्याप्त है – इस अवधारणा के साथ जनजातीय समाज प्रकृति के साथ अभिन्न, अद्वैत एवं एकात्म है। प्रकृति की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने का अदम्य साहस उन्हें ‘प्रकृति का दूत’ बनाता है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास काल से लेकर वर्तमान काल खण्ड तक अरण्य संस्कृति के उपासक जनजातीय वनवासी समाज ने हमारे समक्ष आदर्श जीवन के दिशासूत्र सौंपे हैं।
भगवान श्री राम के वनगमन के समय जिस आत्मीयता श्रद्धा एवं भक्ति के भाव के साथ जनजातीय वनवासी समाज ने उन्हें अपना माना। वह कालखण्ड ‘सांस्कृतिक शिखर’ की महागाथा गा रहा है। भीलनी माता शबरी, निषाद राज गुह, नौका पार लगाने वाला केवट,। कोल – किरात सहित अरण्य में निवासरत अन्यान्य बन्धुजनों ने श्री राम लक्ष्मण व माता जानकी के साथ कुछ यूं घुल मिल गए कि सबकुछ राममय हो गया। वहीं वो महाभारत के कालखंड में कौरवों एवं पाण्डवों की सेनाओं में शामिल योद्धा महारथी भी थे। भारतीय समाज को अलग- अलग ढंग से परिभाषित करने व श्रेष्ठ एवं हेय के रूप में दिखलाने का चलन तो आक्रमण काल और अंग्रेजी विभाजन के समय से प्रारम्भ हुआ है। जो स्वातंत्र्योत्तर भारत में कम्युनिस्ट मानसिकता- भारत विरोधी मानसिकता से लिखे गए इतिहास के कारण और गहराता चला गया। यदि हम महाभारत काल की करें तो उस कालखंड में भी वर्तमान में जनजातीय वनवासी समाज के सम्बोधन से प्रयुक्त किए जाने वाले रणबांकुरे विभिन्न राज्यों के राजा या उच्च पदों पर आसीन थे। अभिप्राय यह कि – भारतीय संस्कृति के कालखंड में विभिन्न जातियां अपनी वर्ण परम्परा के साथ ही महत्वपूर्ण होती थीं। जो ‘भिन्नता के साथ अभिन्न’ होती थीं।
आधुनिक सन्दर्भ में यानी कि सातवीं सदी से भारत में हुए विभिन्न आक्रमणों जिसमें शक, हूण, मंगोल, तुर्क , मुगलों की इस्लामिक तलवारें भारत को रक्तरंजित कर रही थीं। इन क्रूर बर्बर आतंकी लुटेरों का प्रतिकार करने में चाणक्य शिष्य प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य , शिवाजी के मावळा सैनिक, राणा प्रताप के साथ – भील सरदार राणा पूंजा, रानी दुर्गावती, रानी कमलापति सहित अनेकानेक नाम स्मृतियों में आ जाते हैं। इतना ही नहीं वर्तमान में जनजातीय वनवासी समाज कहे जाने वाले समाज के पूर्वज भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में राज करते थे। वे वहां के शासक थे। वहां उन्होंने इस्लामिक और अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध तब तक लड़ाई लड़ी जब तक कि उनके शरीर में प्राण रहे। किन्तु राष्ट्र की अस्मिता को अपने जीते जी खोने नहीं दिया। वहीं अंग्रेजी शासन और ईसाईयत के विरुद्ध भी आर पार की लड़ाई में जनजातीय नायक / नायिकाओं के नाम अव्वल हैं । उन्होंने अपनी स्वातंत्र्य चेतना , प्रकृति की उपासना तथा भारतीयता के मूल्यों से अनुप्राणित अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सदैव अग्रणी भूमिका निभाई। जनजातीय समाज के वीर वीरांगनाओं ने ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाए जाने वाले ‘कन्वर्जन ‘ के कुचक्र – षड्यंत्र के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी । लोभ ,छल , भय या दण्ड से डराकर मिशनरियों ने भले ही उनका कन्वर्जन कराया । लेकिन सत्य का भान होते ही जनजातीय समाज पुनः अपने मूल की ओर लौट आए। साथ ही अपने ‘ मूल ‘ को पुनर्स्थापित किया।
धर्मरक्षक भगवान बिरसा मुंडा का समूचा जीवन चरित्र उसी संघर्ष , त्याग, बलिदान से भरा हुआ है । जनजातीय- वनवासी समाज ने अपने स्वत्व, स्वाभिमान एवं सनातनी हिन्दू जीवन मूल्यों के आलोक में सदा से ही अपनी रौशनी देखी है। फिर कन्वर्जन के – अस्थि- पंजर, षड्यंत्रकारी मुखौटों को नोंचकर दूर फेंक दिया। जनजातीय गौरव दिवस जनजातीय वनवासी समाज के असंख्य – ज्ञात अज्ञात वीर पूर्वजों – वीरांगना माताओं के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की कृतज्ञता के ज्ञापन का महापर्व है। यह महापर्व उनके प्रति कृतज्ञता है जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बगैर राष्ट्र व समाज के लिए समय समय पर इस्लामिक एवं ईसाईयत के अंग्रेजी आक्रान्ताओ के विरुद्ध मोर्चा खोला। स्वातंत्र्य समर में अपने रक्त से त्याग और बलिदान की गाथा लिखी। अपना सर्वस्व न्यौछावर कर राष्ट्र को समाज को दिशाबोध दे गए। मूल्यों और राष्ट्र संस्कृति के लिए जीना-मरना सिखा गए।
स्वातन्त्र्य यज्ञ में कुछ वीर / वीरांगनाओं के नाम जो सहज ही स्मृतियों में आते हैं उनमें — टंट्या मामा, लाचित बोरफूकन अहोम, सिद्धू ,कान्हू, जात्रा उरांव, बोरोबेरा के बंगम मांझी, तिलका मांझी, खाज्या नायक, भीमा नायक ,भाऊसिंह राजनेगी, शहीद वीर नारायण सिंह, श्री अल्लूरी सीता राम राजू ,रानी गौंडिल्यू, रानी दुर्गावती, झलकारी बाई, कालीबाई, फूलो और झानो, राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह , सोना , चकरा विशोई, राघो जी ,गोंड वीर कुमरा भीमू,जोरिया भगत , रूपा नायक दास,पझसी राजा, क्रांतिवीर-तीरथ सिंह, शंभुधन फूंगलो, कृष्णम् बन्धु, भागो जो नाईक, गोंड रानी तिलकावती, वीर नारायण, लक्ष्मण नायक सहित तत्कालीन ब्रिटिश शासन के समय मध्यप्रांत एवं बरार व खोनोमा युद्ध के बलिदानियों की एक लम्बी सूची रोम रोम में ऊर्जा का संचार करती है। इतना ही नहीं बलिदानी सुरेन्द्र साय का संघर्ष भी प्रेरणा बनकर उपस्थित है।इसी प्रकार सन् 1842 में बुंदेला क्रांति में जनजातीय योद्धाओं के विशाल समूह ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और वीरगति को प्राप्त हुए थे। साथ ही जबलपुर के क्षेत्र में गंगाधर गोंड सहित बाला साहेब देश पाण्डे ,राजा अर्जुन सिंह गोंड व रिपुदमन सिंह सहित अनेक रणबांकुरों ने स्वातंत्र्य यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतन्त्रता की अलख जगाई थी।
जनजातीय समाज ने भारत की लोकसंस्कृति लोक परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी अनेकानेक अभावों,दु:खों को सहकर भी बचाए रखा। जो प्राप्त है वही पर्याप्त है इस अवधारणा को उन्होंने जीवन का मन्त्र बनाया। फिर समृद्ध संस्कृति की थाती हमें सौंप दी है। अनेकानेक विविधताओं से परिपूर्ण जनजातीय समाज ने — भारत के सांस्कृतिक स्वरुप को वैभवशाली बनाने में अतुलनीय योगदान दिया है। कला, साहित्य, संगीत,नाटक , नृत्य ,गीत, गायन, वाद्ययंत्र, रहन सहन, वस्त्राभूषण, प्रकृति पूजा, धार्मिक आचरण, कलाकृतियां, शिल्पविधान, आश्रय स्थल, स्थापत्यकला जैसी बहुलतावादी – बहुरंगी विशिष्टताओं से राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रतिमान गढ़े हैं। आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य हो चुका है कि ‘ जनजातीय गौरव दिवस’ के महापर्व में रंगकर राष्ट्र भारत की आबादी के 8.6 प्रतिशत हिस्से के जनजातीय समाज को उसकी अपनी मौलिक संस्कृति के साथ- साथ गतिमान बनाए रखने के लिए कृत संकल्पित हो। उनके सामाजिक आर्थिक – राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए पर्याप्त प्रबंध किए जाएं। ताकि भारतीय संस्कृति के उन संवाहकों के जीवन में खुशहाली आ सके । जो निश्छल भाव से – प्रकृति के साथ अद्वैत – एकात्म होकर राष्ट्र की समृद्धि के लिए अपने जीवन को आहुत करते चले आ रहे हैं। जनजातीय गौरव दिवस मनाने का अभिप्राय यही है कि भारत की चारों दिशाओं में जहां भी जनजातीय समाज निवासरत है। उनके सर्वांगीण विकास के लिए काम किए जाएं। हमारे आसपास जितनी भी जहां भी गौरव गाथाएं हैं उन्हें संजोया जाए। जनजातीय नायकों से जुड़े स्थलों का जीर्णोद्धार हो।उनका पुण्य स्मरण कराया जाए। जनजातीय समाज की सांस्कृतिक विरासत का सम्मान करते हुए उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाए। उनके सुख-दु:ख का समाज सहभागी बने। कन्वर्जन की त्रासदी का समूलनाश करने के लिए समाज और शासन – प्रशासन संकल्प लें। ताकि जनजातीय अस्मिता यानी राष्ट्र की अस्मिता पर कोई संकट न मंडरा सके…
जय बिरसा…जय जोहार..
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)
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Disclaimer- आलेख में व्यक्त विचारों से IBC24 अथवा SBMMPL का कोई संबंध नहीं है। हर तरह के वाद, विवाद के लिए लेखक व्यक्तिगत तौर से जिम्मेदार हैं।
#ATAL_RAAG_ संविधान में भारतीय आत्मा के दर्शन..!
4 weeks ago