रायपुर। राजधानी में स्थित बूढ़ातालाब के ठीक सामने स्थित बूढ़ेश्वर मंदिर तिराहा पर नृसिंह जयंती के दिन संध्या बेला में नृसिंह लीला और हिरण्यकश्यप संहार का मंचन संपूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है। मंचन देखने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ से लोग यहां पहुंचते हैं। मंचन के दौरान कलाकार भगवान नृसिंह और राक्षस हिरण्यकश्यप का जो मुखौटा धारण करते हैं, वह मुखौटा 115 साल पुराना बताया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस मुखौटे को पाकिस्तान के मुल्तान शहर से आए कलाकारों ने बनाया था। कागज की लुगदी से तैयार किए गए मुखौटे को धारणकर जब कलाकार नृसिंह और हिरण्यकश्यप संहार का मंचन करते हैं तो इस जीवंत अभिनय को देखते ही दर्शक एक अलग दुनिया में पहुंच जाते हैं। बूढ़ेश्वर मंदिर के सामने लगातार एक सौ सालों से ये मंचन होता आ रहा है। हिरण्यकश्यप का संहार होने के बाद प्रहलाद और नृसिंह के जयकारे लगाए जाते हैं। इसके पश्चात आरती की जाती है।
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यहां नृसिंह जयंती के दिन पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का संहार किया था,इस कथा का ही मंचन किया जाता है। ग्रंथों में लिखा है कि नृसिंह और हिरण्यकश्यप का युद्ध पाताल, स्वर्ग और धरती लोक में हुआ था। उसी अनुरूप अलग-अलग जगहों पर युद्ध का मंचन किया जाता है। आखिरी युद्ध में महल के दरवाजे पर संहार किया जाता है।
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हिरण्यकश्यप को वरदान था कि उसकी मत्यु न दिन में होगी न रात में, न धरती में न आकाश में होगी, न शस्त्र से होगी न अस्त्र से, न इन्सान के हाथों, न जानवर के हाथों, न घर के भीतर, न घर के बाहर होगी। इस वरदान के फलस्वरूप भगवान ने इन्सान और जानवर का मिलाजुला नृसिंह रूप धरकर हिरण्यकश्यप का वध किया था। दिन और रात के मध्य शाम के समय, महल के दरवाजे पर बिना अस्त्र-शस्त्र के, अपने पैने नाखूनों से धरती और आकाश के बीच अपनी गोद पर लिटाकर छाती चीरकर संहार किया।
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यहां मंचन के लिए प्रहलाद की भूमिका उस बच्चे को दी जाती है जो निडर हो, क्योंकि जब हिरण्यकश्यप कोड़े बरसाते हैं तो भय सा माहौल छा जाता है। इसलिए 10 साल की उम्र के बच्चे को प्रहलाद की भूमिका दी जाती है, ताकि वह न डरे। इस मंचन को देखना अभूतपूर्व अनुभव होता है।