Jain Chaubisi Stotra : घनघोर तिमिर चहुंओर या हो फिर मचा हाहाकार, कर्मों का फल दुखदायी या फिर ग्रहों का अत्याचार... | Jain Chaubisi Stotra

Jain Chaubisi Stotra : घनघोर तिमिर चहुंओर या हो फिर मचा हाहाकार, कर्मों का फल दुखदायी या फिर ग्रहों का अत्याचार…

Edited By :   Modified Date:  August 7, 2024 / 12:42 PM IST, Published Date : August 7, 2024/12:42 pm IST

Jain Chaubisi Stotra : जैन धर्म का संस्थापक ऋषभ देव को माना जाता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे । जैन धर्म का इतिहास काफी पुराना है. जैन धर्म के 24 तीर्थंकर हुए हैं, लेकिन जैन धर्म को पहचान अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने दिलाया है. जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से बना है, जिन शब्द का अर्थ है ‘जीतने वाला ।

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Jain Chaubisi Stotra : जैन धर्म में नवकार मंत्र सबसे गहरा सबसे शक्तिशाली मंत्र है । यह मंत्र सभी संतों, सिद्धों और ऋषियों के दिव्य गुणों और उपलब्धियों को संबोधित करता है ।

Jain Chaubisi Stotra: आईये पढ़ते हैं नवकार मंत्र (हिंदी अर्थ सहित)

णमो अरहंताणं – अरिहंतों को नमस्कार हो।

णमो सिद्धाणं – सिद्धों को नमस्कार हो।

णमो आइरियाणं – आचार्यों को नमस्कार हो।

णमो उवज्झायाणं – उपाध्यायों को नमस्कार हो।

णमो लोए सव्व साहूणं – इस लोक के सभी साधुओं को नमस्कार हो।

एसो पंच णमोक्कारो – यह पाँच परमेष्ठियों को किया हुआ नमस्कार

सव्वपावप्पणासणो – सभी पापो का नाश करने वाला है

मंगलाणं च सव्वेसिं – और सभी मंगलो में

पढमं हवइ मंगलं – प्रथम मंगल है

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Jain Chaubisi Stotra : जैन चौबीसी स्तोत्र

घनघोर तिमिर चहुंओर या हो फिर मचा हाहाकार
कर्मों का फल दुखदायी या फिर ग्रहों का अत्याचार
प्रतिकूल हो जाता अनुकूल लेकर बस आपका नाम
आदिपुरुष, आदीश जिन आपको बारम्बार प्रणाम।।1।।

आता-जाता रहता सुख का पल और दु:ख का कोड़ा
दीन-दु:खी मन से, कर्मों ने जिसको कहीं का न छोड़ा
हर पतित को करते पावन, मन हो जाता जैसे चंदन
जग में पूजित ‘श्री अजित’ आपको कोटि-कोटि वंदन।।2।।

सूर्य रश्मियां भी कर न सकें जिस तिमिर में उजियारा
ज्वालामुखी का लावा तुच्छ ऐसा जलने वाला दुखियारा
शरण में आकर आपकी हर पीड़ा से मुक्त हो तर जाता
पूजूं ‘श्री संभव’ चरण कमल फिर क्या असंभव रह जाता।।3।।

सौ-सौ पुत्र जनने वाली माता जहां कर्मवश दु:खी रहा करतीं
माया की नगरी में जहां प्रजा हमेशा प्रपंचों में फंसी रहती
ऐसे पंकोदधि में दु:खीजनों को तेरे पद पंकज का ही सहारा
‘श्री अभिनंदन’ करो कृपा, हम अकिंचन दे दो हमें किनारा।।4।।

न कर सके जिसको शीतल चन्द्रमा भी सारी शक्ति लगा के
भस्म हो रहा जो क्रोधासक्त, अग्नि बुझा न सके सिन्धु भी
ऐसा कोई मूढ़ कुमति भी हो जाता पूज्य, लेकर आपका नाम
हे मुक्ति के प्रदाता ‘श्री सुमतिनाथ’ प्रभु करो जग का कल्याण।।5।।

कर्मों का लेखा-जोखा इस भवसागर में किसको नहीं सताता
जानकर भी पंक है जग, इस दल-दल में हर कोई फंस जाता
फिर भी शक्तिहीन लेकर आपका नाम भवसागर से तर जाता
चरण सरोज ‘श्री पदमप्रभु’ के ध्याकर पतित भी मोक्ष पा जाता।।6।।

चंचल चित्त अशांत भटक रहा बेपथ जिसको नहीं श्रद्धान
शूलों से भेदित हृदय रहा तड़प अब करूं प्रभु का गुणगान
विषयों में व्याकुल भव-भव में भटका सहकर घोर उपसर्ग
निज में होकर लीन जपूं ‘श्री सुपार्श्व’ सो पाऊं मुक्तिपथ।।7।।

रवि रश्मियां आभा में सुशोभित चरण जजूं हे दीनदयाल
चन्द्र चांदनी चरणों में विलोकित प्रणमुं महासेन के लाल
ऐसे मन मोहने ‘चन्द्र प्रभु’ दु:ख-तिमिर का नाश करते हैं
सेवक तीर्थंकर वंदन कर आत्मउद्धार के मार्ग पर बढ़ते हैं।।8।।

सिर सुरक्षित रहता है क्रोधासक्त गज के पग में आने पर
तन-मन स्थिर रहता है प्राणघातक तूफान में फंस जाने पर
कुसुम-सा प्रफुल्लित हो जाता है मन आपका दर्शन पाने पर
‘श्री पुष्पदंत’ प्रभुजी की कृपा हो जाती है हृदय से ध्याने पर।।9।।

विकल को सरल और विकट को आसान करने वाले प्रभु प्यारे
व्याकुल को शांत और गरल को अमृत करने वाले नाथ निराले
पूजा करूं मन वच काय और यश गाऊं कोटि-कोटि शीश नवायें
‘श्री शीतलनाथ’ प्रभु शीतल करें, भव ताप हरें जग सुख प्रदाय।।10।।

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कलंकित तन उज्ज्वल हो जाता, श्रापित मरुस्थल देवस्थल
आपकी स्तुति से हो रहीं दस दिशाएं गुंजायमान दयानिधान
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी माघ कृष्णा अमावस्या को प्रकटा केवलज्ञान
अर्हत् प्रभु, जग कर रहा नमन ‘श्री श्रेयांसनाथ’ महिमानिधान।।11।।

पुण्य-क्षीण होते लगता है अग्नि दहक रही हो भस्म करने को
इन्द्रिय-विषयों की पीड़ा जैसे मृत्यु समीप हो आलिंगन करने को
मोक्षमार्ग के व्रती कर निजध्यान निर्वाण को तत्पर हो जाते हैं
‘श्री वासुपूज्य’ प्रभु की कृपा से सेवक सिद्ध पद पा जाते हैं।।12।।

चित्त राग-द्वेष में उलझा व्याकुल हृदय में घोर घमासान हो
हेय तत्वों का होता श्रद्धान ऐसा जब लगे कोई न समाधान हो
कर्म कंटकों में उद्विग्न भटक रही आत्मा कितने ही युगों से
पूजूं ‘श्री विमल’ चरण, अब निवास शाश्वत सिद्धों का धाम हो।।13।।

इन्द्रियों से प्रेरित होकर क्षणभंगुर सुख के जाले में फंस जाता है
हेय, ज्ञेय और उपादेय भूलकर जग बंधन में प्राणी धंस जाता है
कर्म ताप के नाश हेतु मैं, ‘अनंतनाथ’ प्रभु को श्रद्धा सहित ध्याऊं
नाथ आपके चरणों की वंदना कर सिद्धों के आठ महागुण पा जाऊं।।14।।

इस जीवन में उपादेय रमण कर, स्वयं अपना कल्याण करूं
धर्म साधना में तन्मय हो, प्रभु की सदा जय-जयकार करूं
हो निष्काम भावना सुन्दर, लेश न पग कुमार्ग पर जाने पाऊं
मैं भी होऊं प्राप्त निर्वाण को ‘धर्मनाथ’ प्रभु को हृदय में बसाऊं।।15।।

तप धारण कर निज की सिद्धि हेतु तुम्हारे गुण गाता हूं
निजातम सुख पाने को विशुद्ध भावों की बगिया सजाता हूं
कर्मों से क्षुब्ध कलंकित दिशाहीन नमूं धर मुक्ति की आस
‘श्री शांतिप्रभु’ काटो कर्म पदकमल में विनती कर रहा दास।।16।।

आत्मशत्रु स्वयं मैं पर्याय की माया में अब तक लीन रहा
निज में आत्मावलोकन करने अब शरण तुम्हरी आया हूं
चैतन्य करो केवल्य वाटिका मेरी देकर अक्षयपद का दान
नतमस्तक करूं बार-बार वंदना, नमन ‘कुंथुनाथ’ भगवान्।।17।।

‘अरहनाथ’ निर्मल करन, दोष मिट जाएं जिनवर सुखकारी
मन-वच-तन शुद्धिकरण, विघ्न सब हट जाएं उत्सव भारी
जग बैरी भयो जो, बैरभाव भुला नर-नार ज्ञानामृत को पाएं
पूजूं प्रभु भाव सो, मंगलकारी अविनासी पद प्राप्त हो जाएं।।18।।

दूषित मन को पावन करते, मन-वच-काया की चंचलता हरते
रोष मिटा जन-जन को हर्षित करते, कषायों की छलना हरते
तीन लोक पुलकित हो जाते करके प्रभु की महिमा का यशोगान
हे ‘मल्लिनाथ’ भगवान आपके चरणाम्बुज में बारम्बार प्रणाम।।19।।

राग-द्वेष में रमे हम अज्ञानी फिर भी न जाने क्यों अभिमानी
मोह-जाल में फंसे तुच्छ जीव, है यही सबकी दु:खभरी कहानी
दो सद्बुद्धि हमें, लेते हृदय से आपका नाम जिननाथ महान
‘मुनि सुब्रतनाथ’ प्रभु विनती आपसे दीजे सिद्ध पद का दान।।20।।

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क्षणभंगुर विषयों के व्यापार से कर्म आस्रव दु:खकारी हो जाते
भूला क्यों है कोई न बचता कर्मोदय भवसागर में खूब सताते
निज में सुख पाने को प्रेमभाव से अरिहंत आपको ध्याता हूं
छवि उर में आपकी बसाकर ‘नमिनाथ’ प्रभु धन्य मैं हो जाता हूं।।21।।

सिद्ध होकर गिरनार से तीर्थ मुक्ति का भक्तों को देने वाले
परम पुनीत तप परमाणुओं से जग को प्रकाशित करने वाले
अहोभाग्य हमारा आया जो आपके चरणों में शीश झुकाएं
दो शक्ति हमें ‘नेमि’ प्रभु हम भी तीर्थपथ पर आगे बढ़ जाएं।।22।।

नाम आपका लेने पर हर मुश्किल से छुटकारा हो जाता
जो भक्ति में लीन रहे सो, स्वयं ही भाग्यविधाता हो जाता
छोटे पड़े सुख सब संसार के, नाम प्रभु का ही सबसे प्यारा
जय श्री चिंतामणि ‘पारसनाथ’, कर देते जीवन में उजयारा।।23।।

भेद न किया प्राणिमात्र में ‘जियो और जीने दो’ का उपदेश दिया
वीतरागी भगवान जिन्होंने आत्मबल से कर्मों को जीत लिया
मार्ग दिखाकर हम सबको मुक्ति का स्वयं भवसागर तीर्थ किया
बंदों ‘वर्धमान’ अतिवीर, जो ध्याये सो उसका कल्याण किया।।24।।

पूजूं सच्चे भाव से चौबीसी स्त्रोत सुखदाय
करो कल्याण प्रभु ‘राहत’ आराधना में चित लगाए।