रायपुर। हिंदू धर्म में 4 वेद है। इन्हीं वेदों का ज्ञान उपनिषदों में भी है। इनकी संख्या 108 मानी गई है। ईशावास्योपनिषद् समस्त उपनिषदों में प्रथम उपनिषद् है।
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शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवां अध्याय ही ईशावास्योपनिषद के नाम से जाना जाता है। शुक्ल यजुर्वेद में पहले 39 अध्याय धार्मिक कर्मकांड से संबंधित है। जबकि चालीसवां अध्याय ज्ञान के रूप में है। शुक्ल यजुर्वेद के इस 40वें ज्ञान कांड संबंधी अध्याय को ही ईशावास्योपनिषद् के रूप में जाना जाता है। इस उपनिषद् के पहले ही मन्त्र में ईशावास्यम शब्द आया है। इसी आधार पर इसका नाम ईशावास्योपनिषद् रखा गया है। ईशावास्यम शब्द का अर्थ है- ईश्वर से व्याप्त।
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इस उपनिषद् में जीवन के ऐसे सूत्र बताए गए हैं। जिन पर चलकर मनुष्य सफल, सुखद एवं समृद्ध जीवन जी सकता है। यह वही ज्ञान है जो कि महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था।
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यह उपनिषद् कहता है कि जीवन में प्राप्त सुखों का उपभोग त्याग के साथ करना चाहिए। अर्थात् समस्त कर्मों एवं कर्तव्यों का पालन ईश्वर की उपासना मानकर ही करना चाहिए।
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ऊपरी तौर पर भले ही संसार में रहकर कर्तव्यों एवं कर्मों का पालन करना चाहिए, किंतु मन सें संसार का त्याग करना चाहिए।
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उपनिषद् कहता है कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता अत: विषय भोगों से दूर रहकर ईश चिंतन के लिए एवं आत्मचिंतन के लिए भी पूरे दिलो-दिमाग से नियमित समय निकालना चाहिए।
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संसार में जीते हुए भी यह बात सदैव याद रखी जाए कि यह संसार और इससे जुड़ी हर चीज एक दिन हमसे अलग हो जाएगी।
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ईशोपनिषद् की यही शिक्षा है कि मनुष्य को अपना जीवन अनासक्त हो कर अर्थात् संसार और संसार से जुड़ी चीजों व रिश्तों से मोह न पालते हुए सारा जीवन परमात्मा को समर्पित करके जिया जाए तो दुख, अभाव व भय न रहेगा।
उपनिषद् यह कहता है कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। इसके हर एक क्षण का उपयोग आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु करना चाहिए। यदि इस अमूल्य मनुष्य जीवन का सदुपयोग न हो सका तो बार-बार पशुयोनियों में जन्म लेना पड़ेगा।