Ayodhya History Part-04: आज की रामगाथा में हम यह जानेंगे कि अयोध्या राम मंदिर को लेकर स्थानीय लोगों के क्या प्रयास थे और कैसे यह पूरा मामला अदालत के दरवाजे तक पहुंचा। अयोध्या में राम मंदिर में भगवान राम यानि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा अपने अंतिम चरण में है। आज से पीएम मोदी ने 11 दिवसीय अनुष्ठान शुरू कर दिया है। 22 जनवरी को राम मंदिर में रामलला स्थापित हो जाएंगे।
लेकिन हम आपको बता दें कि 22 का अंक राममंदिर के काफी महत्वपूर्ण है। दरअसल, 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे का आकार दिए गए राम मंदिर में रामलला के प्राकट्य के बाद जहां हिंदू पक्ष ने वहां पूजा अर्चना का अधिकार मांगा था। वहीं मुस्लिम पक्ष ने मूर्ति हटाने का अभियान छेड़ दिया था। और रामजन्मभूमि की मुक्ति का संघर्ष देश की स्वतंत्रता के साथ सामरिक अभियान से आगे बढ़ कर न्याय के मंदिर की चौखट तक पहुंच गया। ऐसे में आरोप प्रत्यारोप और मांगों की लंबी अदालती लड़ाई शुरू हो गई।
रामलला की मूर्ति हटवाने के लिए पहले से ही प्रशासनिक प्रयास किए जा रहे थे। इस प्रयास में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक शामिल थे। नेहरू मूर्ति स्थापना को शरारतपूर्ण बता रह थे और उसे हटवाने के लिए प्रदेश सरकार को चिट्ठी पर चिट्ठी लिख रहे थे। इस भावना के विपरीत वे रामभक्त किसी प्रकार के भय से मुक्त थे, जो रामलला के प्राकट्य से रोमांचित थे और रामलला को पुन: गौरव प्रदान करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। इस प्रतिबद्धता के आगे तत्कालीन प्रधानमंत्री को अपने कदम वापस लेने पड़े।
ऐसा लगता है कि कि तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरुदत्त सिंह एवं जिलाधिकारी केके नायर की यह स्थापना प्रभावी सिद्ध हुई कि रामलला की मूर्ति हटाए जाने से हिंदू विद्रोही हो सकते हैं और तत्कालीन प्रधानमंत्री सहित मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत भी ऐसा हो यह कभी भी नहीं चाहते थे।
वहीं तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल का रुख तो पहले से जगजाहिर था। उधर गर्भगृह में मूर्तियों की पूजा-अर्चना चलने लगी। इसे रोकने के लिए कुछ स्थानीय मुसलमानों और प्रशासन ने फिर से चिट्ठी-पत्री लिखना शुरू किया। पर पूजा कभी नहीं रुकी। प्रशासन से निराश स्थानीय मुस्लिम मो. हाशिम अंसारी ने मूर्ति हटवाने के लिए स्थानीय अदालत में प्रार्थनापत्र दिया, मगर अदालत ने निषेधाज्ञा का हवाला देकर ‘यथास्थिति’ बनाए रखने का निर्देश दिया।
हालाकि रामलला की मूर्ति जहां है वहीं स्थापित रहे, इस प्रयास के तहत हिंदू पक्ष भी न्यायालय की शरण में पहुंचा। इसी क्रम में हिंदू महासभा के तत्कालीन नगर मंत्री गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी 1950 को स्थानीय अदालत में अपने पूजा-दर्शन के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रार्थनापत्र दिया। इस पर न्यायालय ने स्थगनादेश जारी कर मुस्लिम पक्षकारों को पूजा-पाठ में किसी तरह का अवरोध पैदा करने से रोक दिया, यह भी हिंदु पक्ष की एक जीत थी।
इसके कुछ समय बाद अदालत ने फिर से दोनों पक्षों को सुनने के बाद 19 जनवरी, 1950 को इस आदेश की फिर से पुष्टि करते हुए मूर्तियों को हटाने के विरुद्ध निषेधाज्ञा जारी की। तीन मार्च 1951 को यह आदेश फिर पुष्ट किया गया। रामलला के प्राकट्य के बाद वहां निर्बाध पूजन-अर्चन और दर्शन का सवाल था। इसी के सापेक्ष 25 अप्रैल 1950 को रामनगरी के युवा संत रामचंद्रदास परमहंस ने भी न्यायालय में प्रार्थनापत्र प्रस्तुत कर पूजा-पाठ का अधिकार मांगा और वह ताला भी खोलने की मांग की, जिसे प्रशासन ने बंद किया था। यह ताला एक फरवरी 1986 को खुला।
आपको बात दें कि परमहंस वह व्यक्ति थे, जो रामजन्मभूमि मुक्ति के स्वप्न के संवाहक बने। 40 साल के सफर तक वह मात्र पूजा-पाठ का अधिकार मांगने तक ही सीमित नहीं रह गए थे, बल्कि रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष के रूप में वह उसी तरह के मंदिर के निर्माण की मुहिम का मार्गदर्शन कर रहे थे, जो आज आकार ले रही है। 23 अगस्त 1990 को परमहंस रामचंद्रदास ने अपना मुकदमा यह कहते हुए वापस ले लिया कि अब अदालत से उन्हें न्याय की उम्मीद नहीं है।
इसी बीच न्यायिक संघर्ष में 17 दिसंबर, 1959 को निर्मोही अखाड़ा भी शामिल हुआ। निर्मोही अखाड़ा की ओर से स्वयं को विवादित संपत्ति का मालिक बताते हुए प्रशासन की ओर से नियुक्त तत्कालीन रिसीवर के विरुद्ध तीसरा मुकदमा दायर किया गया। अखाड़ा ने यह भी दावा किया कि निर्मोही अखाड़ा जन्मस्थान पर स्थित मंदिर का असली मालिक भी है। 18 दिसंबर 1961 को उत्तर प्रदेश सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड ने उन्हीं स्थानीय मुसलमानों के साथ मिलकर इस आशय का चौथा मुकदमा दायर किया कि प्रश्नगत ढांचा शहंशाह बाबर द्वारा बनवा कर वक्फ किया गया है, जो मुस्लिम समाज का है।
आगे के भाग में हम आपको बताएंगे कि अदालती कार्यवाही में आगे कब कब क्या निर्णय हुए।
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