रायपुर । होली जलाने और रंग खेलने का उत्सव होली के रुप में भले ही फाल्गुन पूर्णिमा और चैत्र प्रतिपदा को मनाया जाता है। लेकिन शुरुआत सात दिन पहले और धुरेड़ी के लिहाज से आठ दिन पहले से हो जाती है। वसंत उत्सव और उल्लास की प्रतीक्षा लोगों में ही नहीं प्रकृति में भी होती है। फाल्गुन अष्टमी के दिन से ये क्रम शुरु हो जाता है।परंपरा में इस तिथि से रंग खेलने के दिन तक होलाष्टक मनाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार धुरेड़ी के पूर्व के ये आठ दिन (होलिका दहन से सात दिन पहले और अगले दिन धूलिवंदन) तक होलाष्टक के नाम से जाने जाते हैं।
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फाल्गुन माह में शुक्ल अष्टमी से लेकर धुरेड़ी के प्रारंभ तक आठ दिनों की अवधि को होलाष्टक कहा जाता है। पुराणों के अनुसार होलाष्टक की शुरुआत वाले दिन ही भगवान शंकर ने तपस्या भंग करने पर कामदेव को भस्म कर दिया था। होली के पहले के आठ दिनों तक भक्त प्रहलाद को काफी यातनाएं दी गई थीं। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो वो खुद जल गई और प्रह्लाद बच गए। प्रह्लाद पर आए इस संकट के कारण इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।
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मान्यताओं के अनुसार इस दौरान हर दिन अलग-अलग ग्रह अपने उग्र स्वरूप में होते हैं। इसलिए होलाष्टक में शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं। इन आठ दिनों में नकारात्मक ऊर्जा अधिक प्रभावी रहती है। यह समय होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाता है। होलाष्टक के आठ दिनों में शादी, भूमि पूजन, गृह प्रवेश, मांगलिक कार्य, कोई भी नया व्यवसाय या नया कार्य शुरु करने से बचना चाहिए।
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होलाष्टक के दौरान नामकरण संस्कार, जनेऊ संस्कार, गृह प्रवेश, विवाह संस्कार जैसे शुभ कार्यों की भी मनाही है। इन दिनों किसी भी प्रकार का हवन, यज्ञ नहीं किया जाता है। होलाष्टक में विवाह संस्कार किए जाने से संबंधों में अस्थिरता बनी रहती है। नवविवाहिताओं को इन दिनों में मायके में रहने की सलाह दी जाती है। इस अवधि में तप और दान करना अच्छा रहता है। इन दिनों अंतिम संस्कार के लिए भी शांति पूजन कराया जाता है।
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