भोपाल: 15 महीनों के इंतजार के बाद मध्यप्रदेश मंत्रीमंडल के मंत्रियों को जिलों का प्रभार सौंप दिया गया। जब-जब सिंधिया मुख्यमंत्री समेत प्रदेश के दिग्गज भाजपा नेताओं से मिलते, तब-तब सिंधिया समर्थकों को एडजस्ट करने की कवायद की बातें चलती रही। अब जबकि मंत्रियों की प्रभारी वाली सूचि सामने आई है तब भी सिंधिया खेमे का दबदबा साफ नजर आ रहा है। कांग्रेस कहती है यहां एक तीर से कई शिकार किए गए हैं। जानकार कहते हैं कि बीजेपी के सबसे मजबूत वक्त में सिंधिया ने भाजपा में एंट्री लेकर अब सबसे मजबूत नेता के तौर पर उभरने की राह पकड़ी है। कुछ को इसे प्रदेश भाजपा में सिंधिया युग की शुरूआत तक करार दे रहे हैं।
लंबे इंतजार के बाद मध्यप्रदेश में मंत्रियों को जिलों का प्रभार दे दिया गया, जिसमें तुलसी राम सिलावट को ग्वालियर (हरदा भी) गोविंद सिंह राजपूत को भिंड और दमोह भी महेंद्र सिंह सिसोदिया को शिवपुरी, प्रद्युमन सिंह तोमर को गुना और अशोक नगर, सुरेश धाकड़ को दतिया ये चंद ऐसे नाम हैं, जिन्हें देखकर साफ हो गया कि पहले प्रदेश मंत्री मंडल फिर संगठन और अब मंत्रियो को मिले जिलों के प्रभार में एक बार फिर सिंधिंया का दबदबा है। एक नहीं कई बार मांग उठी और चर्चा चली, लेकिन प्रदेश में डेढ़ साल के बाद मंत्रियो को प्रभार मिलते-मिलते डेढ़ साल लग गया। सीएम शिवराज के इस बंटवारे में ज्योतिरादित्य सिंधिया की धमक साफ़ नजर आई। बंटवारे के तहत ग्वालियर चंबल अंचल में बीजेपी के बड़े नेताओ को दरकिनार कर एक बार फिर सिंधिया समर्थको को जिले का प्रभारी बनाया गया। यहां तक इस इलाके में बीजेपी के सबसे बड़े नेता नरेंद्र सिंह तोमर के समर्थक नेताओं को भी केवल उनके संसदीय क्षेत्र मुरैना तक सीमित कर दिया गया।
दूसरी तरफ इस प्रभार सूचि में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ना केवल मलावा-निमाण में पैर पसारे है, बल्कि सीएम शिवराज के गृह जिले सीहोर में भी अपने समर्थक डॉ प्रभुराम चौधरी को प्रभार दिलाकर नए संकेत दे दिए हैं। सिंधिया समर्थक ओपीएस भदौरिया को मालवा के – रतलाम जबकि राजवर्धन सिंह दत्तीगांव-को निमाण के मंदसौर और आलीराजपुर का प्रभार देना मध्य प्रदेश भाजपा में सिंधिया के बढ़ते कद के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि, सीनियर मंत्री नरोत्तम मिश्रा और गोपाल भार्गव को बड़े जिलों का प्रभार मिला हैं।
पहले मंत्रीमंडल विस्तार के लिए महीनों का इंतजार, फिर मंत्रियों को प्रभार देने में 15 महीने का वक्त, उसमें भी सिंधिया का दबदबा। अब इससे सवाल उठता है कि क्या इसी वजह से मंत्रियों के बीच विभागों बंटवारे से लेकर प्रभार बांटने तक में इतना वक्त लगा? क्या वाकई सिंधिया गुट को एडजस्ट करने के लिए हर बार लंबा मंथन और मीटिंग का दौर रहा? सबसे बड़ी बात ये कि क्या इसे प्रदेश भाजपा पॉलिटिक्स में सिंधिया युग के बढते असर माना जाए?