रायपुर। 21 फरवरी को पूरे देश में शिवरात्रि का पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। जहां इस पर्व का धार्मिक महत्त्व है उसी तरह इसको वैज्ञानिक महत्त्व से भी जोड़कर देखा जाता है। बहुत कम लोग हैं, जिनको इस पर्व से जुड़े विज्ञान के बारे में जानकारी होगी।
शुक्रवार 21 फरवरी 2020 को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा। हिंदू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार भगवान शिव ही समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त सृष्टि का उद्भव हुआ हैं। यूं कहे तो भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं । हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना गया है। यह इकलौते ऐसे भगवान हैं, जो स्वर्ग से दूर हिमालय की सर्द चट्टानों पर अपना घर बनाए हुए हैं,जिसकी पहचान कैलाश मानसरोवर के रुप में की जाती है| भगवान शिव अजन्मे माने जानते हैं, ऐसा कहा जाता है कि उनका न तो कोई आरम्भ हुआ है और न ही अंत होगा। इसीलिए वे अवतार न होकर साक्षात ईश्वर माने जाते हैं।
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भगवान शिव कलयुग में भी सबसे अधिक पूज्यनीय माने जाते हैं, उन्हें इसलिए भी प्रासंगिक माना जाता है क्योंकि वो जिन आभूषणों को धारण करते हैं वो प्रकृतिप्रदत्त हैं। उनकी जटाओं में गंगा विराजमान मानी जाती हैं। जो जगत का कल्याण करने स्वर्ग से घरती पर अवतरित हुईं है,वास्तव में जल युक्त नदियां इस युग में जीवन का प्रमाण हैं,किसी भी गृह में जीवन की खोज के लिए सबसे पहले वहां जल की तलाश की जाती है। भगवान शिव द्वारा गंगा को धारण करना यह भी इंगित करता है कि शिव निर्मलता को धारण किए हुए हैं जो ज्ञान, पवित्रता और भक्तों को शांति भी प्रदान करता है।
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भगवान शिव के प्रतीकों में से एक उनका तीसरा नेत्र है । तीसरे नेत्र को ज्ञान और सर्व-भूत का प्रतीक कहा जाता है। शिव का तीसरा नेत्र सांसारिक वस्तुओं से परे संसार को देखने का बोध कराता है। यह एक ऐसी दृष्टि का बोध कराती है जो पाँचों इंद्रियों से परे है। इसलिये शिव को त्र्यम्बक कहा गया है। हर व्यक्ति के पास ज्ञान रुपी तीसरा नेत्र होता है,जिससे वह किसी कठिन से कठिन विषय का हल निकाल सकता है।
भगवान शिव अपने हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं। शिव का त्रिशूल मानव शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियों बायीं, दाहिनी और मध्य का सूचक माना जाता है, इसके अलावा त्रिशूल इच्छा, लड़ाई और ज्ञान का भी प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा कहा जाता है कि इन नाड़ियों से होकर ही उर्जा की गति निर्धारित होती है और गुजरती है। वहीं शिव जी के गले में कुंडली डाले सर्प की भी अपनी विशेषता है। सर्प को कुंडलिनी शक्ति भी कहा गया है जोकि एक निष्क्रिय ऊर्जा है और हर एक के भीतर होती है।
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भगवान शिव अर्धचन्द्र को आभूषण की तरह अपनी जटा के एक हिस्से में धारण करते हैं। इसलिए उन्हें “चंद्रशेखर” या “सोम” कहा गया है| वास्तव में अर्धचन्द्र अपने पांचवें दिन के चरण में चंद्रमा बनता है और समय के चक्र के निर्माण में शुरू से अंत तक विकसित रहने का प्रतीक है। भगवान शिव के सिर पर चन्द्र का होना समय को नियंत्रण करने का प्रतीक है। क्योंकि चन्द्र समय को बताने का एक माध्यम है। आधुनिक युग में भी तिथि की गणना के लिए चंद्रमा की चाल का अध्ययन किया जाता है।
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भगवान डमरु भी धारण करते हैं। यह एक छोटे से आकार का ड्रम है जोकि भगवान शिव के हाथ में रहता है और इसीलिए भगवान शिव को ‘डमरू-हस्त’ कहा जाता है। डमरू के दो अलग-अलग भाग एक पतले गले जैसी संरचना से जुड़े होते हैं। डमरू के अलग-अलग भाग अस्तित्व की दो भिन्न परिस्थिति ‘अव्यक्त’ और ‘प्रकट’ का प्रतिनिधित्व करता है। जब डमरू हिलता है तो इससे ब्रह्मांडीय ध्वनि ‘नाद’ उत्पन्न होती है, जो गहरे ध्यान के दौरान सुनी जा सकती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ‘नाद’ सृजन का स्रोत है। डमरू भगवान शिव के प्रसिद्ध नृत्य “नटराज” का अभिन्न भाग है, जो शिव की प्रमुख विशेषताओं में से एक है।
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जल युक्त कमंडल भगवान शंकर के पास दिखाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यह एक सूखे कद्दू और अमृत से बना हुआ है। कमंडल को भारतीय योगियों और संतों की बुनियादी जरूरत की एक प्रमुख वस्तु के रूप में दिखाया जाता है। इसका एक गहरा महत्व है। जिस प्रकार से पके हुए कद्दू को पेड़ से तोड़ने के बाद उसके छिलके को हटाकर शरबत के लिए प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को भौतिक दुनिया से अपने लगाव को समाप्त कर अपने भीतर की अहंकारी इच्छाओं का त्याग करना चाहिए ताकि वह स्वयं के आनंद का अनुभव करने कर सके। अतः कमंडल अमृत का प्रतीक है।
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भगवान शिव प्रकृति के प्रतीक माने जाते हैं, जिसे कोई धारण नहीं करता वह भी शिव को अति प्रिय हैं। भगवान भोलेनाथ इसलिए संपूर्ण प्राणियों के आराध्य माने जाते हैं।
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