भारत की संस्कृति और परंपराएं जितनी पुरानी हैं उतनी वैज्ञानिक भी हैं, हमारे देश में सिर पर पगड़ी या टोपी पहनने की परंपरा है। महिलाएं भी सिर को ढ़ककर रखती हैं। प्राचीन काल में राजा-महाराजा मुकुट पहननते थे। राजस्थान, मालवा व निमाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग सिर पर साफा बांधकर रखते हैं। महिलाएं सिर पर पल्लू डालकर ही रहती हैं। मंदिरों में पेश के दौरान महिलाएं सिर ढ़कर ही पूजा पाठ करती हैं।
परंपराओं में है शुमार
भारतीय मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जिसको आप आदर देते हैं, उनके आगे हमेशा सिर ढंककर जाते हैं। इसी कारण से कई महिलाएं अभी भी जब भी अपने सास-ससुर या बड़ों से मिलती हैं, तो सिर ढंक लेती हैं।
मान- सम्मान का प्रतीक
सिर को ढ़ाकना, मान-सम्मान का भी प्रतीक है। सिर की पगड़ी को कुछ समाज इज्जत के मापदंड से जोड़कर देखते हैं।
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मस्तिष्क को चैतन्य रखना
हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक सिर के बीचों बीच सहस्रार चक्र होता है जिसे ब्रह्म रन्ध्र भी कहते हैं। हमारे शरीर में 10 द्वार होते हैं- 2 नासिका, 2 आंख, 2 कान, 1 मुंह, 2 गुप्तांग और सिर के मध्य भाग में 10वां द्वार होता है। दशम द्वार के माध्यम से ही परमात्मा से साक्षात्कार कर पा सकते हैं। इसीलिए पूजा के समय या मंदिर में प्रार्थना करने के समय सिर को ढंककर रखने से मन चैतन्य और एकाग्र बना रहता है। पूजा के समय पुरुषों द्वारा शिखा बांधने को लेकर भी यही मान्यता है।
शीर्ष की सुरक्षा
सिर-हेड प्राणी के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है और इसे सर्दी-गर्मी-बारिश की मार, बाहरी कीटाणुओं के हमले, चोट लगने, गिरने या लड़ाई-झगड़े में सिर को बचाने के लिए सिर पर पगड़ी, साफा या टोप लगाया जाता था, आजकल गाड़ी चलाने के लिए हेलमेट जरूरी हो गया है।
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साफा-
मालवा अंचल में अलग प्रकार का और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बांधा जाता है। इसे पगड़ी या फेटा भी कहते हैं। महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, गुजरात में यह भिन्न-भिन्न तरीके का होता है, तमिलनाडु में भी अलग तरह का साफा बांधा जाता है। प्राचीनकाल और मध्यकाल में लगभग सभी भारतीय यह साफा पहनते थे। राजस्थान में भी मारवाड़ी साफा अलग तो सामान्य राजस्थानी साफा अलग होता है। मुगलों ने अफगानी, पठानी और पंजाबी साफे को अपनाया। सिखों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया, जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है।
राजस्थान की पहचान है पगड़ी- राजस्थान में राजपूत समाज में साफों-पगड़ी के अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग तरकों का इस्तेमाल समय-समय के अनुसार होता है, जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अत: केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना। आम दिनों में राजपूत बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा सिर पर बांधते थे तो विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफों का उपयोग होता था। सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है इसलिए राजपूत समाज में सिर्फ शोकग्रस्त व्यक्ति ही सफेद साफा पहनता है।
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शुभ कार्यों में पगड़ी धारण करना-
भारत की परंपराओं में मांगलिक या धार्मिक कार्यों में साफा पहने जाने का प्रचलन है जिससे कि किसी भी प्रकार के रीतिरिवाज में एक सम्मान, संस्कृति और आध्यात्मिकता की पहचान होती है। इसके और भी कई महत्व हैं। विवाह में घराती और बाराती पक्ष के सभी लोग यदि साफा पहनते हैं तो विवाह समारोह में चार चांद लग जाते हैं। इससे समारोह में उनकी एक अलग ही पहचान निर्मित होती है।
कैप- कैप या टोपी सिर का एक ऐसा पहनावा है, जिसे सभी पसंद करते हैं। हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी के साथ पूरे देश में अनेक प्रकार की टोपियां पहनी-पहनाईं जाती हैं।
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