नई दिल्ली: कोरोना संक्रमण, ग्लोबल वार्मिंग सहित कई अन्य समस्याओं ने मानव जाति सहित दुनिया के कई प्रजातियों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। इन समस्याओं के चलते रोजाना दुनियाभर में लाखों को लोगों की मौत हो रही है। वहीं इन सभी समस्याओं के मद्देनजर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और साइंटिस्ट एवी लोएब ने हाल ही में दुनियाभर के वैज्ञानिकों से संवाद किया। इस दौरान प्रोफेसर एवी लोएब ने वैज्ञानिकों से पूछा कि आखिरकार दुनिया कब तक रहेगी? इंसानों की कौम कब तक जीवित रहेगी? धरती के खत्म होने या इंसानों के खत्म होने की तारीख क्या होगी?
एवी लोएब का ऐसा मानना है कि वैज्ञानिक सही दिशा में काम नहीं कर रहे हैं। चर्चा के दौरान प्रोफेसर लोएब ने वैज्ञानिकों से अपील करते हुए कहा है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए काम करें और लगातार कई बीमारियों से जुड़ी वैक्सीन की खोज करें, ताकि मानव सहित कई प्रजातियों के अस्तित्व पर मंडराने वाले संकट को दूर किया जा सके। उन्होंने कहा कि सतत ऊर्जा के विकल्प खोजें, सबको खाना मिले इसका तरीका निकाले। अंतरिक्ष में बड़े बेस स्टेशन बनाने की तैयारी कर लें। साथ ही एलियंस से संपर्क करने की कोशिश करें। क्योंकि जिस दिन हम तकनीकी रूप से पूरी तरह मैच्योर हो जाएंगे, उस दिन से इंसानों की पूरी पीढ़ी और धरती नष्ट होने के लिए तैयार हो जाएगी। उस समय यही सारे खोज और तकनीकी विकास ही कुछ इंसानों को बचा पाएंगी।
एवी लोएब ने कहा कि हमारे लिए सबसे ज्यादा अहम इंसानों की उम्र को बढ़ाना है। उनका कहना है कि उनसे कई बार पूछा गया है कि मारी तकनीकी सभ्यता कितने वर्षों तक जीवित रहेगी। इन सवालों पर मेरा जवाब है कि हम लोग अपने जीवन के मध्य अवस्था में हैं। हमारी तकनीकी सभ्यता सैकड़ों साल पहले शुरू हुई थी। तब यह किशोरावस्था में था, लेकिन अब तकनीकी सभ्यता जवानी की दहलीज पर है। यह लाखों साल तक बची रह सकती है। हम फिलहाल अपने टेक्नोलॉजिकल जीवन का युवापन देख रहे हैं।
एवी लोएब ने कहा कि जिस तरह से धरती की हालत इंसानों की वजह से खराब हो रही है, उससे लगता है कि इंसान ज्यादा दिन धरती पर रह नहीं पाएंगे। कुछ सदियों में धरती की हालत इतनी खराब हो जाएगी कि लोगों को स्पेस में जाकर रहना पड़ेगा। सबसे बड़ा खतरा तकनीकी आपदा का है। ये तकनीकी आपदा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी होगी। इसके अलावा दो बड़े खतरे हैं इंसानों द्वारा विकसित महामारी और देशों के बीच युद्ध। इन सबको लेकर सकारात्मक रूप से काम नहीं किया गया तो इंसानों को धरती खुद खत्म कर देगी या फिर वह अपने आप को नष्ट कर देगी। ये भी हो सकता है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती पर इतना अत्याचार हो कि वह खुद ही नष्ट होने लगे।
प्रोफसर लोएब का कहना है कि इंसान उन समस्याओं से नहीं निपट पाता, जिससे वह पहले टकराया नही है। जैसे जलवायु परिवर्तन। इसकी वजह से लगातार अलग-अलग देशों में मौसम परिवर्तन हो रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिसके चलते समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है। सैकड़ों सालों से शांत ज्वालामुखी फिर से आग उगलने लगे हैं। फिजिक्स का साधारण मॉडल कहता है कि हम सब एलिमेंट्री पार्टिकल्स यानी मूल तत्वों से बने हैं। इनमें अलग से कुछ नहीं जोड़ा गया है। इसलिए प्रकृति के नियमों के आधार पर हमें मौलिक स्तर पर इनसे छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी मूल तत्व फिजिक्स के नियमों के तहत आपस में संबंध बनाते या बिगाड़ते हैं। अगर इनसे छेड़छाड़ की आजादी मिलती है तो इससे नुकसान ही होगा।
एवी का कहना है कि इंसान और उनकी जटिल शारीरिक संरचना निजी तौर पर किसी भी आपदा की भविष्यवाणी नहीं कर सकती। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी मानव सभ्यता की किस्मत है। इंसान की सभ्यता कब तक रहेगी ये भविष्य में होने वाले तकनीकी विकास पर निर्भर करता है। वैसे भी इंसान खुद ही अपना शिकार कर डालेंगे। क्योंकि सूरज से पहले भी कई ग्रह बने हैं। हो सकता है कि कई ग्रह ऐसे हो जहां पर जीव रहते हों। उनके पास भी तकनीकी सभ्यता हो। ये भी हो सकता है कि वो तकनीकी सभ्यता को अपनी पारंपरिक और प्राचीन सभ्यता के साथ मिलाकर चल रहे हों। ताकि तकनीकी सभ्यता के चक्कर में खुद की पहचान न खो जाए। जब रेडियोएक्टिव एटम धीरे-धीरे खत्म हो सकता है तो अन्य जीवन देने वाले एटम क्यों नहीं खत्म हो सकते।
लोएब का कहना है कि इंसान को फिलहाल अंतरिक्ष में मानव जीवन की तलाश करनी चाहिए। वर्ममान हालात को देखते हुए यह पहली प्राथमिकमा होनी चाहिए। उन्हें मर चुकी सभ्यताओं की फिर से खोज करनी चाहिए। यह पता करना चाहिए कि ये सभ्यताएं कैसे खत्म हुईं। कहीं ऐसी ही हालत इंसानों के साथ न हो। लेकिन इंसान हमेशा से अपने जीने का रास्ता निकाल लेता है। इसलिए हो सकता है कि भविष्य में इंसान अंतरिक्ष में जाकर खुद को बचाने में कामयाब हो जाए।
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Advice to young scientists from a Harvard Astronomer:
“…recognize that attending strictly to mundane goals will not provide us with the broader skill set necessary to adapt to changing circumstances in the long run.” https://t.co/PCFqu6O1Hs
— Live Science (@LiveScience) May 21, 2021
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