रायपुरः ’आंगा देव’ बस्तर के आदिवासी समुदाय के एक देवता हैं, जिसकी पूजा किसी भी शुभ कार्य के पहले की जाती है। आंगा देव को बस्तर का आराध्य भी कहा जाता है। आंगा देव का चलायमान देवस्थान है। दरअसल आदिवासी समुदाय के लोग सागौन की लकड़ी से एक डोली की तरह बनाते हैं और इसे मिट्टी, मोर पंख सहित अन्य चिजों से सजाते हैं। आंगा देव का निर्माण आदिवासी विधि विधान से किया जाता है और ऐसा माना जाता है कि इसमें देवता वास करते हैं। आदिवासी समुदाय के लोगों की बात मानें तो यह देव की मूर्ति नहीं है, लेकिन इस पर देव आता है। इसी पर देव को खिलाते हैं, इसकी सहायता से देव को एक गांव से दूसरे गांव ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि आंगा देव को सिर्फ मर्द की उठा सकते हैं, जबकि स्त्रियों को उठाने की मनाही है। आमतौर पर आंगा को 12-13 वर्ष के बच्चों द्वारा ही उठवाया जाता है। मान्यता है कि देव बच्चों के आंगा उठाने से जल्दी प्रसन्न होते हैं।
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अगर प्राचिन इतिहास पर नजर डालें तो आदिवासी समुदाय लंबे समय तक एक स्थान पर नहीं रहते थे, वे एक निश्चित समय के बाद अपना ठिकाना बदल देते थे। इसके साथ ही वे अपने देवी-देवाताओं को अपने साथ ले जाते थे। ऐसे ही आंगा देव को आदिवासी समुदाय का चलायमान देवता माना जाता है। ऐसे कई अवसर आते हैं, जब आदिवासी अपने देवी देवताओं को लेकर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान की यात्रा करते हैं। इस समय उनकी मूर्तियां किसी वाहन अथवा अन्य माध्यमों से लाई जाती हैं।
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आंगा देव का स्वरूप
आंगा, सागौन की लकड़ी के दो गोल लट्ठों से बनाया जाता है। लट्ठों को जोड़ने का कार्य वृक्ष की छाल से बांधकर किया जाता है। मध्य में एक अन्य लकड़ी लगाई जाती है, जिसका अगला सिरा नाग के फन जैसा बनाया जाता है। इसे कोको कहा जाता है। जब आंगा को निकाला जाता है या उसके द्वारा देव का आह्वान किया जाता है, तब आंगा का श्रृंगार किया जाता है। इस समय आंगा का पुजारी आंगा के कोको पर चांदी के पतरे का बना नागफन फिट करता है तथा आंगा की भुजाओं पर लोगों द्वारा मनौती पूर्ण होने पर चढ़ाई गई चांदी की पत्तियां बांधता है और चारों कोनों पर मोर पंख के गुच्छे फिट करता है। कोई भी व्यक्तिए जिसे देव ने सपने में या अन्य प्रकार आंगा बनाने की प्रेरणा दी हो, वह आंगा बना सकता है। एक बार आंगा की स्थापना हो गई, तो फिर उसे सदैव के लिए निभाना पड़ता है।
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आदिवासियों में ये है मान्यता
आदिवासियों में ऐसी मान्यता है कि केवल पाट देवता का ही आंगा बनाया जा सकता है, किसी भी देवी का आंगा नहीं बनाया जा सकता। पाट देव पुर्लिंग होता है। देव कुल में पाटदेव, देवी-देवता ओर भूत-प्रेत के बीच का स्थान रखता है। पाट देव की पूजा का निर्वाहन कुटुम्ब के पुरखों से चली आ रही परम्परा से होता है। किसी व्यक्ति के कुटुम्ब में पाट देव माना जाता रहा हो, तो उसे भी मानना पड़ता है। गांवों में अलग-अलग समय पर आंगा बनाए जाते है, लेकिन आंगा तब बनाया जाता है जब देव किसी परिवार को सताए और फिर अपना आंगा स्थापित किए जाने की मांग करे।
केशकाल में स्थित आंगा देव को साल में दो ही बार निकाला जाता है। एक तो भंगाराम की जात्रा के समय, दूसरे मार्च माह में केशकाल बाजार के मेले में। इस मेले में अनेक आंगा, एवं डोलियां और अन्य देवी-देवता आते हैं। यह मेला होली के चार-पांच दिन बाद लगता है।
यदि किसी गांव के किसी व्यक्ति पर कोई भयानक विपदा आ गई और वहां कोई आंगा नहीं है, तो वे केशकाल के आंगा को अपने गांव आमन्त्रित करते हैं। इसके लिए उस व्यक्ति को केशकाल पुलिस थाना में सूचना देना पड़ती है और आंगा के आने-जाने का खर्चा देना पड़ता है। आंगा लेकर पुजारी और पावे दोनों जाते हैं। जब आंगा से विपत्ति दूर करने के उपाय पूछे जाते हैं, तब यदि आंगा आगे की ओर आएगा तो समझते हैं ’हां’ और यदि आंगा पीछे की ओर जाए तो समझते हैं ’न’। इस प्रकार पावे एवं पुजारी की सहायता से आंगा के माध्यम से पाट देव ग्रामीणों की समस्याओं के निराकरण हेतु उपाय की स्वीकृति देता है। लोग पाट देव से मन्नते मांगते हैं और उनके पूरा होने पर आंगा को चांदी की पत्तियां पहनाते हैं।
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