रायपुरः देश की 18वीं लोकसभा के पहले सत्र के तीसरे दिन स्पीकर का चुनाव हुआ। ओम बिरला एक बार फिर से स्पीकर चुने गए। पदभार ग्रहण करते ही उन्होंने आपातकाल पर निंदा प्रस्ताव पढ़ा। बिरला ने कहा कि यह सदन 1975 में आपातकाल लगाने के निर्णय की कड़े शब्दों में निंदा करता है। स्पीकर बिरला के पहले कदम से विपक्ष भी चौंक गया। इसके बाद सदन में विपक्ष ने विरोध कर दिया। स्पीकर बनते ही ओम बिरला की ओर निंदा प्रस्ताव लाने के आखिर मायने क्या है? समझते हैं।
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लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के इस पहले कदम पर मेरा मानना है कि स्पीकर चुने जाने के तुरंत बाद उनके द्वारा इमरजेंसी को लेकर निंदा प्रस्ताव लाने का फैसला एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है। यह एकाएक ऐसे ही नहीं लाया गया है। क्योंकि हमनें दो दिन यह देखा कि विपक्ष यानी इंडी अलायंस के नेता हाथ में संविधान की किताब लेकर शपथ ले रहे थे और अपने आप को संविधान के हितैषी के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे। लोकसभा चुनाव के दौरान भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था। राहुल गांधी समेत विपक्ष के नेताओं की ओर से ये माहौल बनाने की कोशिश की गई कि नरेंद्र मोदी संविधान की फिक्र नहीं करते हैं। उसकी इज्जत नहीं करते हैं और मोदी के शासन में संविधान की रक्षा बहुत मुश्किल हो गया है। वे और उनकी सरकार संविधान के नियमों और कानूनों को नहीं मानते हैं। संवैधानिक संस्थाओं पर भी अपना एकाधिकार कर लिया है और तानाशाह की तरह शासन चला रहे हैं। संविधान के तहत शासन नहीं चला रहे हैं। इसके जवाब में एक सोची समझी रणनीति के तहत ओम बिरला की ओर से इमरजेंसी पर निंदा प्रस्ताव लाया गया। ये पहला मौका था जब कोई स्पीकर की ओर से इस तरह का प्रस्ताव लाया गया हो। आमतौर पर देखा जाता है कि स्पीकर की अनुमति के बाद पक्ष और विपक्ष की ओर से ऐसा प्रस्ताव लाया जाता है। ओम बिरला ने अपने प्रस्ताव में इंदिरा गांधी का नाम लेते हुए इमरजेंसी को संविधान और लोकतंत्र का काला अध्याय बताया। उन्होंने इमरजेंसी के दौरान 21 महीने के समय में लोकतांत्रिक अधिकार, प्रेस के अधिकार, विपक्ष के अधिकार छीने जाने का भी उल्लेख किया। स्पीकर के द्वारा लाए गए प्रस्ताव के जरिए सत्ता पक्ष की ओर से यह बताने की कोशिश की गई कि जो लोग अपने हाथ में संविधान लेकर शपथ ले रहे हैं, उन्होंने तो इमरजेंसी लगाकर संविधान की पूरी धज्जियां उड़ा दी थी और जो संवैधानिक अधिकार छीन सकते हैं, उनको संविधान की रक्षा के लिए बात करने का हक नहीं है।
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सोची समझी रणनीति मैं इसलिए कह रहा हूं कि पहले तो उन्होंने निंदा प्रस्ताव लाया। फिर सांसदों को 2 मिनट का मौन भी रखवाया। हालांकि इसे विपक्ष ने नहीं माना। इसके बाद सत्ता पक्ष के सांसद सदन से बाहर निकलकर तख्तियां, बैनर और पट्टियां लेकर विरोध किया। यह अचानक से तो नहीं हो सकता। वहीं दूसरी तरफ स्पीकर के इस कदम से विपक्ष एकदम अवाक रह गया कि अभी कुछ देर पहले ही हमने मत विभाजन से इनकार कर दिया था और ओम बिरला को अध्यक्ष चुने जाने पर अपनी सहमति दी थी। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, पीएम मोदी के साथ उन्हें आसंदी तक छोड़ के भी आए थे। इसके बाद अचानक से स्पीकर ने इमरजेंसी को लेकर गुगली फेंक दी। इस दौरान विपक्ष के पास केवल हल्ला, शोरगुल करने के अलावा और कुछ नहीं बचा। उन्हें समझ में नहीं आया कि ये क्या हो गया? इसके बाद विपक्षी नेताओं ने मीडिया के सामने नाराजगी जाहिर की। विपक्षी नेताओं ने कहा कि हमने तो मत विभाजन भी नहीं करवाया कि सहमति से अध्यक्ष बने। फिर भी
सरकार ने ऐसा कर दिया। कुल मिलाकर यह कहे कि आज संसद की ये लड़ाई संविधान वर्सेस आपातकाल की थी। सत्ता पक्ष की ओर से यह कहने की कोशिश की गई कि अगर तुम कहते हो कि अगर हम संविधान के अनुसार नहीं चल रहे हैं तो आप खुद अपने गिरेबान में झांको और देखो कि आपने संविधान के साथ क्या-क्या किया? सरकार की ओर से विपक्ष के संविधान बचाने की नैरिटेव की तोड़ने की कोशिश की गई। उधर विपक्ष भी डटा हुआ है और बार-बार अपनी संख्या का जिक्र कर कह रहे हैं कि विपक्ष की आवाज को नहीं दबाया जाना चाहिए। विपक्ष की आवाज जनता की होती है। उनको पूरा मौका मिलना चाहिए। अंकुश अगर विपक्ष पर लगाते हैं तो सत्ता पक्ष पर भी लगना चाहिए। इस पूरे मसले पर यह कहा जा सकता है कि ये अभी जो हो रहा है, वह केवल एक पिक्चर है। आगे देखिए इसमें बहुत मजा आने वाला है और इसी तरीके से यह शह और मात का गेम अगले 5 साल चलने वाला है।
10 साल बाद सदन को नेता प्रतिपक्ष भी मिला है। पहली बार राहुल गांधी किसी संवैधानिक पद पर आए हैं। पद और कद के साथ-साथ जिम्मेदारियां भी बढ़ गई है। इसके साथ ही अब उनके तेवर में भी बदलाव देखने को मिला। जो राहुल गांधी हमें टीशर्ट और शर्ट में दिख रहे थे, वे आज कुर्ते-पजामे में दिखे। इतना ही नहीं स्पीकर के चुनाव के बाद उन्होंने ओम बिरला और मोदी से हाथ मिलाया और आसंदी तक छोड़ के आए। ये अलग बात है कि हाथ के साथ दिल कितने मिले? उन्होंने सदन में आज जिस तरह से भाषण दिया, उससे उसमें एक बदलाव नजर आया। वैसे भी लीडर ऑफ ऑपोजिशन का काफी महत्वपूर्ण होता है। सीबीआई प्रमुख, निर्वाचन आयुक्त सहित कई संवैधानिक पदों पर प्रमुखों के चुनाव के दौरान उनकी भागीदारी होती है। भले ही वो वोट से होता हो, लेकिन एक उनकी सहभागिता रहती है। इन सभी के लिए वे जाएंगे। कुल मिलाकर अब पूरे देश की नजर राहुल गांधी पर होने वाली है। क्योंकि वे पहली बार एक ऐसे संवैधानिक पद पर बैठे हैं, जहां उन्हें जिम्मेदार व्यवहार करना पड़ेगा। संसद में आप कुछ बोल दिए और गायब हो गए, ऐसा अब नहीं चलने वाला है। संसद में जिस तरीके का उनका आचरण रहा है, उससे थोड़ा सा उनको अब गंभीर रहना पड़ेगा। चूंकि अब तो खुद कह रहे हैं कि जनता ने उन्हें संविधान की रक्षा करने की जिम्मेदारी दी है। मोदी को मैंडेट नहीं दिया है। उनको सभी बातों को गंभीरता से लेना होगा। हमें भी यह देखना चाहिए कि इस मौके को राहुल गांधी कैसे भुनाते हैं? कैसा परफॉर्म करते हैं? हालांकि लोग कहते हैं कि राहुल पॉलिटिकली परिपक्व नहीं है, लेकिन आदमी बदलता है, सीखता है। अब उनको मौका मिला है तो ये देखने वाली बात होगी कि आने वाले समय में राहुल गांधी का संसद में किस तरीके का आचरण होगा? किस तरीके से वो सरकार को घेरते हैं? किन मुद्दों पर वे अपनी बात को मजबूती से रखते हैं और सरकार के सामने सवाल खड़े करते हैं?