रायपुरः Politics on reservation देश में नई सरकार चुनने के लिए अब मतदान का दौर शुरू हो गया है। इस बार चुनाव में यह देखा जा रहा है कि हर चरण के मतदान के बाद राजनीतिक पार्टियां अपनी रणनीति में बदलाव कर रही है। पहले चरण में मुद्दा विहीन लग रहा चुनाव अब हिंदू-मुस्लिम से होते हुए आरक्षण तक आ पहुंचा है। तीसरे चरण में राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के मुद्दे पर सबसे ज्यादा फोकस कर रही है। शुरुआती दौर में नीरस लग रहा चुनाव आखिर तीसरे चरण के आते-आते आरक्षण के मुद्दे पर क्यों शिफ्ट हो गया? चलिए समझते हैं
Politics on reservation हम ये बात लगातार कह रहे हैं कि इस बार का लोकसभा चुनाव मुद्दाविहीन है। कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जो सात चरणों के चुनाव को एक साथ बांध सकें। पिछले चुनाव में बालाकोट एयरस्ट्राइक की जमकर चर्चा हो रही थी और यह मुद्दा पूरे चुनाव के दौरान छाया रहा। 2014 में अच्छे दिन आएंगे की थीम थी। इस बार ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है। इसलिए इस बार हर चरण में अलग-अलग मुद्दे उठ रहे हैं। देश में 1882 में ज्योतिबा फूले और एक अंग्रेज विलियम हंटर ने सबसे पहले जातिगत आरक्षण की बात की थी। आजादी के बाद 1950 में बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान ने लोकसभा और विधानसभा में चुनकर आने वालों के लिए एसटी और एससी का प्रावधान रखा। यह केवल 10 सालों के लिए था। इसकी अवधि खत्म होने पहले इसे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में भी लागू कर दिया गया। इसके बाद सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में एसटी 7.5 प्रतिशत और एससी को 15 प्रतिशत आरक्षण मिलने लगा। इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई।
इसके बाद देश में मंडल आयोग आया। आयोग ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने बात कही। सिफारिशों के बाद 1991 में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इस तरीके आरक्षण का प्रतिशत बढ़ता गया। उस समय में भी ये वोट की राजनीति थी। जातियों के वोट को अपनी ओर खींचने सरकारों ने इसे लागू कर दिया। 2019 में भाजपा सरकार ने इस आरक्षण में ईडब्ल्यूएस की कैटेगरी और जोड़ दी। सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जाने लगा। अब देश में आरक्षण का आंकड़ा 50 प्रतिशत से आगे चला गया। इसके बाद सु्प्रीम कोर्ट का आदेश अड़ंगा आया कि देश में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता है। इससे बचने सरकार ने संविधान में संशोधन किया। अभी की बात करें तो देश में इस समय 59.50 प्रतिशत आरक्षण है। हालांकि कई जगहों पर राज्य सरकारों के फैसले से ये कम और ज्यादा हो सकता है।
वर्तमान समय में देश में आरक्षण का मुद्दा वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बन चुका है। राजनीति दल इसी जरिए जातिगत वोटों को साधने की कोशिश करती है। अब इसे हटाना ना मुमकिन सा लगता है। किसी भी पार्टी में ये हिम्मत नहीं दिखती कि इसे हटा सकें। अगर ऐसा करते हैं तो उन्हें नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। पीएम मोदी, राहुल गांधी समेत कई नेता इस समय आरक्षण पर जीने मरने की कसमें खा रहे हैं, वह केवल वोट बैंक को पुख्ता करने की कोशिश है। इसे कोई खत्म नहीं कर सकता है।
देश की सियासत में इन दिनों आरक्षण की चर्चा तो हो ही रही है। इसके साथ-साथ कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड एक मुद्दा जमकर गूंज रहा है। कोविशील्ड के साइड इफेक्ट को लेकर नेताओं के बीच जुबानी जंग तेज हो चली है। यह केवल एक राजनीतिक प्रोपोगेंडा है। एस्ट्राजेनेका की साइड इफेक्ट वाली रिपोर्ट अभी की नहीं है। यह रिपोर्ट फरवरी की है, जो ब्रिटेन की एक कोर्ट में फाइल की गई थी। इससे पहले 2021 में वैक्सीनेशन के समय टीकाकरण दस्तावेज में इस बात का जिक्र था कि वैक्सीन से थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम (TTS) जैसे साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं। उसमें कहा गया था कि ये साइड इफेक्ट्स 10 लाख में केवल 10 से 15 लोगों में हो सकता है। इसकी प्रभावशीलता वैक्सीन की पहली डोज लगने के 21 से तीन महीने तक हो सकती है। दूसरा और तीसरा डोज के बाद ये और कम हो जाएगा। हमने देखा कि वैक्सीनेशन के समय भी कई सवाल उठाए गए थे कि ये मोदी की वैक्सीन है। भाजपा की वैक्सीन है। लेकिन आज भी डाक्टरों का मानना है कि इसी वैक्सीन की वजह से 80 से 90 प्रतिशत कोरोना का खतरा कम हो गया है। अब तक देश में वैक्सीन की 220 करोड़ डोज लग चुकी है। 175 करोड़ डोज कोविशील्ड के लग चुके हैं। सबसे खास बात यह की थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम (TTS) जैसे साइड इफेक्ट्स भारत और एशिया के देशों में नहीं आए है। जो भी साइड इफेक्ट्स के केसेस आए हैं, वह यूरोप के देशों के है। वर्तमान समय में कोविशील्ड को लेकर बयानबाजी हो रही है, वह केवल राजनीति है। इसमें डरने की कोई बात नहीं है।