Big Picture With RKM: रायपुर: नेमप्लेट विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश आ चुका है। कोर्ट ने इस पूरे मसले पर राज्य सरकार से सात दिनों के भीतर जवाब तलब किया है। इस तरह से फिलहाल नाम लिखने के आदेश और इससे उपजे विवाद पर ब्रेक लग चुका है। पर सवाल यही हैं कि क्या यह विवाद उचित था क्योंकि इससे जितना नुकसान होना था हो चुका है।
बहरहाल अगर मानव स्वभाव की बात करे तो यह हमेशा से देखा जाता रहा है कि एक मांसाहार पंसद इंसान अक्सर मुसलमान नाम वाले ढाबे या रेस्टोरेंट को ही तरजीह देता हैं। राजधानी से दिल्ली और रायपुर तक देखें जाते हैं कि कितने ही मुस्लिमों के रेस्टोरेंट हैं जहां मांसाहार के लिए ग्राहकों की भीड़ नजर आती है। ऐसे में यह तय है कि एक मांसाहार ग्राहक हर स्थिति में मुस्लिमों के रेस्टोरेंट की तरफ ही आकर्षित होगा। ऐसे में ग्राहकों की प्राथमिकता किसी का नाम बिलकुल नहीं हो सकता। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप मुसलमान है, हिन्दू है, सिक्ख या ईसाई। अब सवाल उठता है कि अगर सरकार ने उन्हें नाम लिखने का आदेश दिया तो इस पर कैसा बवाल और कैसी आपत्ति?
Big Picture With RKM: अगर हम गंभीरता से इस मुद्दे पर विचार करें तो इस पूरे विवाद के तीन महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इनमें पहला है आस्था, दूसरी सामजिक समरसता और तीसरी आर्थिक स्वतंत्रता। नेमप्लेट के आदेश का पालन पुलिस ने कराया जिसका आधार कांवड़ियों की आस्था थी लेकिन इसका सीधा प्रभाव पड़ा सामाजिक समरसता और दुकानदारों के आर्थिक स्वतंत्रता पर। इस तरह इस विषय ये तीनों ही चीजे जुड़ी हुई है। तो ऐसे में चाणक्य की वह बात यहां पूरी तरह से सही सिद्ध होती हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि शासक को सदैव देश, काल और परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना पड़ता है वरना जो फैसले सही भी हो वह परिस्थित अनुरूप न हो तो गलत साबित हो जाते है।
अगर नियमों की बात करें तो हम सभी ने दुकानों में उनके मालिकों के नाम हमेशा से देखें है और यह नियम भी हैं पर सवाल यह हैं कि नाम लिखने का आदेश कब दिया गया? सावन में। अब जो इस पूरे आदेश का समर्थन करते है उनकी दलील कांवड़ियों और उनकी कठिन यात्रा से जुड़ी हुई है। कांवड़िये, जो अपनी यात्रा के दौरान काफी जटिल समय में गुजारते हैं। ये व्रती होते हैं, शाकाहार होते हैं, नंगे पांव ही कई-कई दिनों तक इनकी यात्रा चलती है। पहले इनकी संख्या कम थी लेकिन अब इस यात्रा ने कुम्भ का स्वरुप ले लिया है। इसकी संख्या अब करोड़ो में होती है। हरिद्वार-यूपी-हरिद्वार रुट पर ही कांवड़ियों की संख्या पिछले दफे दो करोड़ थी। इसके साथ ही यह भी देखा गया है कि इस पूरे यात्रा के दौरान रास्ते में पड़ने वाले मांसाहार के दुकानें स्वतः ही बंद हो जाती है पर चूंकि आदेश इस कांवड़ यात्रा दौर में ही दिया गया तो इसका असर हमारी सामजिक समरसता पर देखने को मिला। इसे हिन्दू-मुसलमान का मुद्दा बनाया गया। आरोप लगाया गया कि मुसलमानों को लक्ष्यित किया जा रहा, उनकी दुकानें बंद कराई जा रही हैं। उनके दुकानों और कमाई पर इसका असर पड़ेगा, उनकी आर्थिक स्वतंत्रता पर इसका प्रभाव देखने को मिलेगा। बावजूद इसके कि पूरे पर्व में ऐसी दुकानें लगभग बंद हो चुकी होती हैं और कांवड़ियों के अलावा भी लोग इस मार्ग पर यात्रा करते है। ऐसे में विवाद के केंद्र में यह आदेश नहीं बल्कि आदेश के लिए तय किया गया वक्त हैं और यही वजह हैं कि अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने, अपनी सियासत चमकाने इसे हिन्दू-मुस्लिम के बीच विवाद का रूप दे दिया गया।
Big Picture With RKM: बात अगर इस आदेश की ही करें तो कांवड़ियों के मार्ग पर मुसलमानों की दुकानों से इतर कई बड़े और मल्टीनेशनल कंपनियों के रेस्टोरेंट और होटल्स है। इन होटलों के केंद्रीयकृत रसोइयों में काम करने वाले भी हर धर्म के है तो फिर किस तरह इस निर्णय को व्यवहार में लाया जा सकता है? तो सवाल यही है कि अगर कांवड़ यात्रा ने जब आज व्यापक रूप ले लिया है तो सरकारों को चाहिए की इनका प्रबंधन और व्यवस्थापन समय से पहले और समय रहते हो। कोर्ट ने भी आज इस पर प्रकाश डाला कि नाम लिखने की जरूरत नहीं है बल्कि दुकानदारों को शाकाहार और मांसाहार से जुड़ी जानकारियां देनी होगी। चूंकि यह सवाल आस्था से जुड़ा हुआ है और आस्था सिर्फ एक धर्म नहीं बल्कि सभी धर्मों और इसे मानने वालों से जुड़ी हुई है। इनका सम्मान करने से सामाजिक समरसता बनी रहती है। इस तरह से अगर समय अनुसार इस पर निर्णय लिया जाता तो यह विवादों से दूर होता पर चूंकि अब यह मसला कोर्ट में है ऐसे में देखना होगा कि इस पर अंतिम आदेश क्या आता है।