Maulana Abul Kalam Azad: आज यानी 22 फरवरी को भारतरत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद की 65वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है. उनका पूरा नाम सैय्यद गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल हुसैनी है. अबुल कलाम आजाद अरबी, बंगाली, हिंदुस्तानी, फारसी और अंग्रेजी समेत कई भाषाओं के जानकार थे. अबुल कलाम आजाद को लेखक के तौर पर उनकी अमर कृति ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के लिए जाना जाता है, जो देश के पहले शिक्षामंत्री के रूप में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) जैसे शिक्षा व संस्कृति को विकसित करने वाले उत्कृष्ट संस्थानों और संगीत नाटक, साहित्य और ललित कला जैसी अकादमियों की स्थापना के लिए जाने जाते हैं.
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आज भी उनकी महानता को याद किया जाता है, उन्होंने 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा के अतिरिक्त उन्होंने बेटियों की शिक्षा, कृषि शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षणों की पृष्ठभूमि तैयार की है. उनके बारे में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में स्वतंत्रता और संप्रभुता को लेकर अपनी अवधारणाओं का बेझिझक वर्णन किया है. उनकी बनाई नैतिकता की वह नजीर भी है, जिसके तहत उन्होंने शिक्षामंत्री रहते नैतिकता के आधार पर देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ लेने से मना कर दिया था, जो बाद में 1992 में उनको मरणोपरांत प्रदान किया गया.
बहरहाल, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के मद्देनजर कोई उन्हें इस्लाम का विद्वान कहता है तो कोई कवि, लेखक, पत्रकार या क्रांतिकारी, खिलाफत आंदोलनकारी, महात्मा गांधी का अनुयायी, सत्याग्रही, स्वतंत्रता सेनानी या कांग्रेस का सबसे कमसिन अध्यक्ष भी कहता है, लेकिन सच कहा जाए तो देश के लिए उनकी सबसे बड़ी देन यह है कि स्वतंत्रता संघर्ष के नाजुक दौर में जब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना अपना घातक द्विराष्ट्र सिद्धांत लेकर आगे बढ़े और मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे, तो उन्होंने दृढ़ता से उनका विरोध किया, वैसी दृढ़ता से कांग्रेस के अन्दर या बाहर के उनके जैसा किसी और नेता ने नहीं किया- चाहे वह अल्पसंख्यक समुदाय से रहा हो या बहुसंख्यक रहा हो.
Maulana Abul Kalam Azad: एक समय मौलाना ने यह तक कह दिया था कि उनके लिए देश की एकता स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और वो उसका विभाजन टालने के लिए कुछ और दिनों की गुलामी भी बर्दाश्त कर सकते हैं. 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने दो टूक घोषणा की थी कि ‘अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा. क्योंकि स्वतंत्रता मिलने में देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा, लेकिन हमारी एकता टूट गई तो पूरी मानवता का नुकसान होगा.’
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