नयी दिल्ली, 19 जनवरी (भाषा) राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निदेशक चित्तरंजन त्रिपाठी का कहना है कि रंगमंच ने सिनेमा, टेलीविजन और अब ओटीटी (ओवर-द-टॉप) के आने के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रखा है। उन्होंने “लाइव मीडियम की आदत” की सराहना तो की लेकिन साथ ही कहा कि इसमें कंटेंट की उपेक्षा और संकट है।
एक साल से अधिक समय से इस प्रतिष्ठित नाट्य विद्यालय की कमान संभाल रहे निदेशक त्रिपाठी ने कहा कि उस भूमि में सांस्कृतिक पुनर्जागरण होना चाहिए जिसने दुनिया को ‘नाट्य शास्त्र’ दिया।
नाट्य शास्त्र प्रदर्शन कलाओं पर एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ है और माना जाता है कि इसे तीन हजार साल से भी पहले लिखा गया था।
त्रिपाठी ने समाचार एजेंसी ‘पीटीआई’ के मुख्यालय में एक साक्षात्कार में कहा कि पश्चिमी दुनिया द्वारा वर्णित रंगमंच के सभी गुणों का उल्लेख “नाट्य शास्त्र” में किया गया है, जिसे अपने मूल देश में उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
उन्होंने कहा, ‘‘यदि आप ‘नाट्य शास्त्र’ में 6,000 श्लोकों को पढ़ेंगे, तो आपको लगेगा कि आपने इसे कहीं पढ़ा है लेकिन यहां नहीं, किसी और जगह। हमारा घर ही वह जगह है जहां यह पहले से ही मौजूद है, इसलिए यह सांस्कृतिक जागृति महत्वपूर्ण है।’’
‘सेक्रेड गेम्स’ के अभिनेता ने ‘सनातन’ के गुणों की भी वकालत की, जिसका प्रयोग धर्म के साथ ‘शाश्वत’ को दर्शाने के लिए किया जाता है और हिंदू धर्म के पर्याय के रूप में देखा जाता है।
त्रिपाठी ने कहा, ‘‘समाजशास्त्र संस्कृति को जीवन जीने के तरीके के रूप में सबसे सरल रूप में समझाता है। यह समय के साथ बदलता रहेगा, इसलिए एक मुख्यधारा या समकालीन संस्कृति होगी, लेकिन मूल संस्कृति भी है। जब हम इसके बारे में बात करते हैं तो आपको ‘सनातन’ को देखना होगा और इसमें कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए…’’।
उन्होंने कहा कि उनके विचार में संस्कृति को राजनीति से अलग करना संभव नहीं है। समस्या इसकी धारणा में है।
त्रिपाठी ने कहा, ‘‘यदि हम अपनी संस्कृति को त्याग देते हैं, तो हम अनाथ हैं। यहां कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से, लोग यहां राजनीति करते हैं। जब मैं भारतीय कहता हूं, तो वहां कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए।’’
उन्हें ‘‘समुद्र मंथन’’, ‘‘गन्नू भाई’’ और ‘‘ताजमहल का टेंडर’’ जैसी थिएटर प्रस्तुतियों में उनके काम और ‘‘तलवार’’, ‘‘जुबान’’ और ‘‘मुक्काबाज’’ जैसी हिंदी फिल्मों में उनकी भूमिकाओं के लिए जाना जाता है। उन्होंने ‘‘रसभरी’’, ‘‘रक्तांचल’’, ‘‘फर्जी’’ और ‘‘मॉम’’ समेत कई वेब सीरीज में भी काम किया है।
त्रिपाठी ने कहा कि जिस तरह कई ग्रंथों के लिए किसी एक व्यक्ति को श्रेय नहीं दिया जाता, उसी तरह किसी नाटक के निर्देशक के बारे में भी कम ही बात की जाती है।
उन्होंने भारतीय परंपराओं, विशेषकर मंदिरों में “नाट्य मंडपों” के अस्तित्व को तोड़ने के लिए ब्रिटिश शासन को दोषी ठहराया।
उन्होंने कहा, ‘‘इसी तरह, हमारे पूर्वजों ने पहले ही बहुत कुछ किया है और यह सिलसिला टूट गया क्योंकि अंग्रेजों ने हम पर शासन किया और वे चाहते थे कि हम उनकी भाषा सीखें। उन्होंने संस्कृत विद्यालय और स्थानीय भाषा के विद्यालय बंद कर दिए। वे मुख्यधारा बन गए और हम पाठ्येतर गतिविधियों में शामिल हो गए।’’
त्रिपाठी ने विषय-वस्तु के संकट पर भी बात की। उन्होंने कहा कि कोई भी व्यक्ति वित्तीय संभावनाओं की कमी के कारण नए नाटक नहीं लिख रहा है।
उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप एक भी लिखेंगे तो कोई भी उसे प्रकाशित नहीं करेगा, मंच पर उतारना तो दूर की बात है। जो लोग प्रतिभावान हैं और 10 पेज लिख सकते हैं, वे ‘डेली सोप’ के लिए ऐसा करते हैं, जहां उन्हें प्रतिदिन 20,000 रुपये मिलते हैं। रंगमंच में इस तरह से भुगतान नहीं किया जा सकता। प्रतिभाएं ओटीटी पर चली गई हैं।’’
उन्होंने कहा कि नए नाटकों की कमी को दूर करने के लिए, नाट्य विद्यालय जल्द ही ‘कंटेंट राइटिंग’ में एमए कोर्स शुरू करने जा रहा है, जिसके तहत छात्रों को एक वर्ष में एक लघु फिल्म, एक विज्ञापन फिल्म, एक फिल्म और एक नाटक लिखना होगा।
वर्ष 1959 में स्थापित यह नाट्य विद्यालय अभिनय, तकनीक, निर्देशन और डिजाइन समेत रंगमंच के विभिन्न पहलुओं में प्रशिक्षण प्रदान करता है।
उन्होंने कहा कि लोग नसीरुद्दीन शाह, पंकज त्रिपाठी या राजपाल यादव जैसी हस्तियों की सफलताओं को याद कर सकते हैं, लेकिन ऐसे कई और लोग हैं जिन्होंने मंच के पीछे रहकर ही फिल्म उद्योग में सफल करियर बनाया है।
त्रिपाठी ने कहा, ‘‘जब भी हम एनएसडी में कोई नाटक करते हैं तो आपको आश्चर्य होगा कि ज्यादातर युवा ही इसे देखने आते हैं, जो लोग कहते हैं कि वे (युवा) सिर्फ सोशल मीडिया और रील में ही डूबे रहते हैं और फिर भी वे आते हैं। इसका मतलब है कि उस जिज्ञासा, उस रहस्य को हराना वाकई मुश्किल है।’’
रंगमंच को इससे जुड़े लोगों के लिए अधिक लाभदायक बनाने के प्रयास में, एनएसडी ने पिछले वर्ष अपने नाटकों के लिए टिकट की कीमतें बढ़ा दी थीं और इस निर्णय की काफी आलोचना हुई थी।
त्रिपाठी ने कहा, ‘‘समाज से रंगमंच के लिए भुगतान करने के लिए कहे, समाज असहाय नहीं है, वह बस इस विचार का आदी हो गया है कि ‘मैं तभी जाऊंगा जब मुझे पास मिलेगा’। ऐसा करना बंद करो। भले ही सिर्फ दो लोग ही देखने आएं, लेकिन वे ही आपके असली दर्शक हैं।’’
भाषा
देवेंद्र नरेश
नरेश
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(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)