न्यायालय ने एक पूर्व आईपीएस अधिकारी के खिलाफ एनडीपीएस के तहत कार्यवाही को रद्द किया |

न्यायालय ने एक पूर्व आईपीएस अधिकारी के खिलाफ एनडीपीएस के तहत कार्यवाही को रद्द किया

न्यायालय ने एक पूर्व आईपीएस अधिकारी के खिलाफ एनडीपीएस के तहत कार्यवाही को रद्द किया

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Modified Date: December 13, 2024 / 06:31 PM IST
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Published Date: December 13, 2024 6:31 pm IST

नयी दिल्ली, 13 दिसंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) की एक पूर्व अधिकारी को राहत प्रदान करते हुए शुक्रवार को हरियाणा में स्वापक औषधि एवं मन: प्रभावी पदार्थ अधिनियम (एनडीपीएस) के तहत उनके खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर दिया और कहा कि विशेष न्यायाधीश ने ‘‘पूर्व निर्धारित तरीके’’ से काम किया।

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति पी. के. मिश्रा और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने 30 मई, 2008 को विशेष न्यायाधीश द्वारा लिखवाए गए उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसे सीलबंद लिफाफे में रखा गया था। पीठ ने कहा कि यह आदेश ‘‘विवेक का पूरी तरह से इस्तेमाल न करने’’ को दर्शाता है।

पीठ का यह फैसला अधिकारी द्वारा दायर उस अपील पर आया, जिसमें पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के 14 अक्टूबर, 2010 के आदेश को चुनौती दी गई थी।

उच्च न्यायालय ने कुरुक्षेत्र के विशेष न्यायाधीश के 30 मई, 2008 के उस आदेश को बरकरार रखा, जिन्होंने एनडीपीएस अधिनियम की धारा 58 के तहत दंडनीय अपराध के लिए अधिकारी के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही से संबंधित लिखवाए गये आदेश को उत्तराधिकारी विशेष न्यायाधीश द्वारा सौंपे जाने के वास्ते एक सीलबंद लिफाफे में रखा था।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विशेष न्यायाधीश ने अपने स्थानांतरण के बाद भी मामले की सुनवाई तेजी से की और फैसला लिखवाया तथा फैसला सुनाने का काम पद संभालने वाले नये न्यायाधीश पर छोड़ दिया।

पीठ ने कहा, ‘‘जब हमने 24 अक्टूबर, 2024 को सीलबंद लिफाफा खोला और विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित 30 मई, 2008 के आदेश का अवलोकन किया, तो हमें यह स्पष्ट हो गया कि विशेष न्यायाधीश ने पूर्वनिर्धारित तरीके से कार्य किया था।’’

न्यायालय ने कहा कि 26 मई, 2008 को विशेष न्यायाधीश को कुरुक्षेत्र से पानीपत स्थानांतरित करने का आदेश जारी किया गया था, लेकिन न्यायिक अधिकारी ने मामले को फिर से 27 मई से 30 मई, 2008 तक सुनवाई के लिए रखा।

पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि 30 मई, 2008 को विशेष न्यायाधीश ने आदेश लिखवाया तथा उसे सीलबंद लिफाफे में रख लिया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विशेष न्यायाधीश ने नैसर्गिक न्याय के सभी सिद्धांतों की पूरी तरह से अनदेखी की।’’

इसने कहा कि अपीलकर्ता भारती अरोड़ा 21 मई, 2004 से 18 मार्च, 2005 तक कुरुक्षेत्र की पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात थीं।

पुलिस ने जनवरी, 2005 में एक गोपनीय सूचना के आधार पर एक व्यक्ति को आठ किलोग्राम से अधिक अफीम के साथ गिरफ्तार किया।

इसके तुरंत बाद, उस व्यक्ति ने एक आवेदन दायर कर दावा किया कि वह निर्दोष है।

पीठ ने कहा कि अरोड़ा ने आवेदन का संज्ञान लिया और जांच की गई। जांच रिपोर्ट के अनुसार, वह व्यक्ति निर्दोष था।

बाइस फरवरी, 2007 को विशेष न्यायाधीश ने पुलिस द्वारा पकड़े गए व्यक्ति को दोषी ठहराया और अन्य तीन व्यक्तियों को बरी कर दिया।

उच्चतम न्यायालय ने उल्लेख किया कि 26 फरवरी, 2007 को विशेष न्यायाधीश ने अधिनियम की धारा 58 के तहत अरोड़ा को कारण बताओ नोटिस जारी किया था और उन्हें 15 मार्च, 2007 को अदालत के समक्ष उपस्थित रहने का निर्देश दिया था।

विशेष न्यायाधीश ने 30 मई, 2008 को लिखवाये गये आदेश को एक सीलबंद लिफाफे में रख दिया और मामले को चार जून, 2008 तक के लिए स्थगित कर दिया।

इस आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय का रुख किया जिसने विशेष न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखा था।

भाषा

देवेंद्र संतोष

संतोष

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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