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नयी दिल्ली, 26 अक्टूबर (भाषा) भारत दिसंबर में उपग्रहों को उनकी वांछित कक्षा में ले जाने के लिए स्वदेश में विकसित ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ का परीक्षण करेगा। यह एक ऐसी तकनीक है, जो अंतरिक्ष यान को हल्का और अधिक सक्षम बनाने का भरोसा जगाती है।
‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ का मतलब बिजली से संचालित अंतरिक्ष यान प्रणोदन उपकरण से है।
आकाशवाणी पर सरदार पटेल व्याख्यान देते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने कहा कि अंतरिक्ष की उड़ान भरने के लिए स्वदेशी रूप से विकसित ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ का इस्तेमाल करने वाला पहला ‘टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर सैटेलाइट’ (टीडीएस-01) दिसंबर में प्रक्षेपित किया जाएगा।
‘टीडीएस-01’ स्वदेशी रूप से निर्मित यात्रा तरंग ट्यूब प्रवर्धक (टीडब्ल्यूटीए) की क्षमता का भी प्रदर्शन करेगा, जो उपग्रहों में लगाए जाने वाले विभिन्न संचार उपकरणों और ‘माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग पेलोड’ का अहम हिस्सा है।
चार टन के संचार उपग्रह को प्रणोदक को सक्रिय करने और उसे प्रक्षेपण कक्षा से वांछित भूस्थिर कक्षा में पहुंचाने के लिए दो टन से अधिक तरल ईंधन की जरूरत पड़ती है।
अगर उपग्रह वायुमंडलीय खिंचाव या सूर्य और चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण भटक जाता है, तो उसे वांछित कक्षा में भेजने के लिए भी प्रणोदक को सक्रिय किया जाता है।
सोमनाथ ने कहा, “चार टन का उपग्रह दो से ढाई टन ईंधन के साथ अंतरिक्ष की उड़ान भरता है। ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ के मामले में ईंधन की आवश्यकता घटकर महज 200 किलोग्राम रह जाती है।”
उन्होंने बताया कि विद्युत प्रणोदन प्रणाली (ईपीएस) ईंधन के रूप में रसायनों के बजाय आर्गन जैसी प्रणोदक गैस का इस्तेमाल करती है, जिसे सौर ऊर्जा की मदद से आयनित किया जाता है।
इसरो प्रमुख ने कहा, “जब ईंधन टैंक का आकार घट जाता है, तब उपग्रह के हर हिस्से का आकार भी कम हो जाता है। यह एक संचयी प्रभाव है। इस उपग्रह का वजन दो टन से अधिक नहीं होगा, लेकिन इसमें चार टन के उपग्रह जितनी ताकत होगी।”
हालांकि, ईपीएस का एक दूसरा पहलू भी है कि यह रसायन आधारित प्रणोदन प्रणाली के मुकाबले बहुत कम ‘थ्रस्ट’ (बल) उत्पन्न करता है, जिससे उपग्रह को उसकी वांछित कक्षा में पहुंचने में ज्यादा समय लगता है।
सोमनाथ ने कहा, “विद्युत प्रणोदन प्रणाली की एकमात्र समस्या यह है कि इसमें बहुत कम बल उत्पन्न होता है। इसका इस्तेमाल करने वाले उपग्रह को प्रक्षेपण कक्षा से भूस्थिर कक्षा में पहुंचने में लगभग तीन महीने लगेंगे, जबकि रसायन आधारित प्रणोदम प्रणाली में यह अवधि महज एक सप्ताह है।”
इसरो ने मई 2017 में प्रक्षेपित ‘जीसैट-9’ उपग्रह में पहली बार ईपीएस का इस्तेमाल किया था। हालांकि, यह ईपीएस पूरी तरह से रूस में तैयार किया गया था।
‘नासा-इसरो सिंथेटिक अपेर्चर राडार’ (एनआईएसएआर) के बारे में सोमनाथ ने कहा कि ‘राडार एंटीना रिफ्लेक्टर’ पर काम पूरा हो गया है और इस महत्वपूर्ण घटक को कैलिफोर्निया स्थित नासा की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला से बेंगलुरु में इसरो के अंतरिक्ष यान एकीकरण एवं परीक्षण सुविधा में भेज दिया गया है।
उन्होंने कहा कि ‘राडार एंटीना रिफ्लेक्टर’ को उपग्रह से जोड़ने में लगभग दो महीने का समय लगेगा।
इसरो प्रमुख ने कहा, “हम इसे फरवरी में प्रक्षेपित करने की योजना बनाएंगे।”
भाषा पारुल माधव
माधव
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