नयी दिल्ली, 12 सितंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि अधिकारियों का यह संवैधानिक दायित्व है कि वे नागरिकों की “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” से संबंधित मामलों में शीघ्रता से निर्णय लें और ऐसे मामले में एक दिन की देरी भी मायने रखती है।
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने अप्पिसेरिल कोचू मोहम्मद शाजी नामक व्यक्ति की हिरासत की पुष्टि करने वाले आदेश को रद्द कर दिया।
न्यायालय ने 31 जुलाई को अपने आदेश में बंदी को तत्काल रिहा करने का निर्देश दिया था। बृहस्पतिवार को दिए गए विस्तृत फैसले में न्यायालय ने इसके पीछे कारण भी बताए।
शाजी को विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्करी निवारण अधिनियम (सीओएफईपीओएसए), 1974 के प्रावधानों के तहत पिछले वर्ष 31 अगस्त को जारी आदेश के अनुसरण में हिरासत में लिया गया था।
पीठ में न्यायमूर्ति पी.के. मिश्रा और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन भी शामिल हैं। पीठ ने कहा कि बंदी द्वारा प्रस्तुत अभ्यावेदन पर निर्णय लेने में लगभग नौ महीने की देरी हुई।
पीठ ने अपने 60 पन्नों के आदेश में कहा, “नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में, अधिकारियों को अत्यंत शीघ्रता से अभ्यावेदन पर निर्णय लेने का संवैधानिक दायित्व सौंपा गया है। ऐसे मामले में प्रत्येक दिन की देरी मायने रखती है।”
न्यायालय ने कहा, “वर्तमान मामले में, हम पाते हैं कि जेल अधिकारियों के लापरवाह, उदासीन और उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण के कारण, बंदी का प्रतिवेदन उचित समय के भीतर बंदी प्राधिकारी और केंद्र सरकार तक नहीं पहुंच सका। प्रतिवेदन पर निर्णय लेने में लगभग नौ महीने की देरी हो चुकी है।”
पीठ ने बंदी की पत्नी द्वारा दायर अपील पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें केरल उच्च न्यायालय द्वारा मार्च में सुनाये गये आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उसके पति को पेश करने की उसकी याचिका को खारिज कर दिया गया था।
शीर्ष अदालत ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि क्या किसी व्यक्ति के बयानों को प्रस्तुत न किए जाने से, जिन्हें हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी द्वारा अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि पर पहुंचने के लिए ध्यान में रखा गया था, हिरासत में लिए गए व्यक्ति के अधिकार पर असर पड़ा है।
भाषा
प्रशांत माधव
माधव
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