नयी दिल्ली, 14 जनवरी (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने दहेज के एक मामले में एक महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने के दोषी एक व्यक्ति को यह कहते हुए बरी कर दिया कि घटना में उसके शामिल होने का कोई सबूत नहीं है।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें व्यक्ति की सजा को बरकरार रखा गया था। संबंधित व्यक्ति महिला का रिश्तेदार था।
पीठ ने कहा कि व्यावहारिक रूप से ऐसा कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि व्यक्ति ने महिला को आत्महत्या के लिए उकसाया था।
इसने 9 जनवरी के अपने फैसले में कहा कि किसी भी ठोस सबूत के अभाव में अदालत सीधे साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113 बी को लागू नहीं कर सकती और यह नहीं मान सकती कि आरोपी ने आत्महत्या के लिए उकसाया।
अभियोजन पक्ष का कहना था कि महिला को उसका पति, ससुराल के अन्य लोग और अपीलकर्ता द्वारा प्रताड़ित किया गया, जिसके कारण उसने 27 सितंबर, 1990 को खुद को आग लगा ली और गंभीर रूप से जलने के कारण उसकी मौत हो गई।
महिला के पिता ने उसी दिन अजगैन थाने, उन्नाव में प्राथमिकी दर्ज कराई।
बाद में चार व्यक्तियों के खिलाफ प्रासंगिक प्रावधानों के तहत आरोपपत्र दायर किया गया था।
निचली अदालत ने शुरू में आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी के तहत दहेज हत्या का आरोप तय किया था, लेकिन उन्हें बरी कर दिया, और इसके बजाय उन्हें भादंसं की धारा 306 और 498 के अलावा दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया।
अपील की सुनवाई के दौरान महिला के सास-ससुर की मृत्यु हो गई, जबकि उसके पति को निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सजा भुगतनी पड़ी।
भाषा नेत्रपाल नरेश
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