बेंगलुरु: Contract Employees Regularization Latest Order नियमितीकरण के लिए लंबी लड़ाई लड़ रहे संविदा कर्मचारियों को एक बार फिर झटका लगा है। लेकिन इस बार सरकार ने नहीं बल्कि हाईकोर्ट ने उन्हें जोर का झटका दिया है। संविदा कर्मचारियों की रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने दो टूक में कह दिया कि कर्मचारियों का नियमितीकरण संभव ही नहीं है। इस संबंध में हाईकोर्ट ने सीधे उनकी नियुक्ति पर सवालिया निशान लगाया है। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद पिछले 24 साल से संविदा के तौर पर कार्यरत कर्मचारियों की उम्मीदों पर एक बार फिर पानी फिर गया है।
Contract Employees Regularization Latest Order मिली जानकारी के अनुसार तुमकुर में सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में साल 2000 से कर्मचारियों का 27 संगठन कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर कार्यरत था। सभी कर्मचारियों की नियुक्ति आउटसोर्स के माध्यम से हुई थी। वहीं, साल 2016 में तुमकुर में प्रिंटिंग प्रेस को बंद कर दिया गया। साथ ही सरकारी प्रिंटिंग प्रेस के सभी दायित्व और संपत्ति पीन्या में प्रिंटिंग प्रेस में नियोजित कर दिया। तुमकुर प्रिंटिंग प्रेस जब बंद हुआ था तो यहां 96 कर्मचारी कार्यरत थे, जिनमें से 50 को समाहित कर लिया गया और अन्य कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर दी गई। कर्मचारियों ने 2000 से 2010 की अवधि के लिए तथा फिर 2016-17 से 2022-23 तक सेवा प्रदान की।
कर्मचारियों ने नौकरी से निकाले जाने और संस्था के बंद होने के बाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें सुनवाई करते हुए राज्य को उनकी दीर्घकालिक सेवा के आधार पर उनके नियमितीकरण पर विचार करने का निर्देश दिया। न्यायालय के निर्देश के बावजूद कर्मचारियों के नियमितीकरण के अनुरोध को प्रतिवादियों ने अस्वीकार किया। इससे व्यथित होकर कर्मचारियों ने रिट याचिका दायर की।
कर्मचारियों ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि वे वर्ष 2000 से लगातार सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में कार्यरत हैं। उन्होंने तर्क दिया कि रोजगार अनुबंधों और आउटसोर्सिंग व्यवस्था में बदलाव के बावजूद, उनका काम वर्षों से एक जैसा बना हुआ है, जो सरकार के साथ दीर्घकालिक रोजगार संबंधों को दर्शाता है। कर्मचारियों ने दावा किया कि विभिन्न ठेकेदारों के माध्यम से उनका रोजगार सरकार के लिए प्रत्यक्ष रोजगार दायित्वों से बचने का एक साधन था। उन्होंने श्रम विभाग की निरीक्षण रिपोर्टों से साक्ष्य प्रस्तुत किए, जो उनके निरंतर रोजगार के दावे का समर्थन करते हैं।
दूसरी ओर राज्य द्वारा यह तर्क दिया गया कि कर्मचारियों को कभी भी सरकारी प्रिंटिंग प्रेस द्वारा सीधे नियोजित नहीं किया गया। इसके बजाय, उन्हें विभिन्न ठेकेदारों द्वारा नियोजित किया गया, जो प्रिंटिंग प्रेस को सेवाएं प्रदान करते थे। इस प्रकार, कर्मचारी सरकारी कर्मचारी नहीं थे, बल्कि ठेकेदारों के कर्मचारी थे। राज्य ने कहा कि कर्मचारियों का रोजगार सरकार और ठेकेदारों के बीच आउटसोर्सिंग अनुबंधों की शर्तों द्वारा शासित था। ये अनुबंध समयबद्ध थे और नवीनीकरण के अधीन थे, जो दर्शाता है कि कर्मचारियों का रोजगार निरंतर या स्थायी नहीं था। उन्होंने आगे दावा किया कि आउटसोर्सिंग अनुबंधों के माध्यम से नियोजित श्रमिकों के रोजगार को नियमित करने के लिए कोई कानूनी दायित्व नहीं था।
न्यायालय ने पाया कि कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियुक्त किया गया और वे सीधे सरकारी प्रिंटिंग प्रेस द्वारा नियोजित नहीं थे। न्यायालय ने कहा कि सेवाओं की आउटसोर्सिंग सरकार द्वारा नीतिगत निर्णय था, जिसका उद्देश्य दक्षता में सुधार करना और लागत कम करना था। कर्मचारियों का रोजगार इन अनुबंधों पर आधारित था, जिसका उद्देश्य स्थायी रोजगार संबंध बनाना नहीं था। यह पाया गया कि यह साबित करने के लिए कोई आधिकारिक रिकॉर्ड या दस्तावेज नहीं थे कि कर्मचारी सीधे सरकारी प्रिंटिंग प्रेस द्वारा नियोजित थे। न्यायालय ने माना कि भर्ती प्रक्रियाओं का पालन किए बिना आकस्मिक या अस्थायी कर्मचारियों को नियमित करना स्थापित कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने सचिव, कर्नाटक राज्य बनाम उमादेवी और अन्य के मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें सार्वजनिक रोजगार के लिए उचित भर्ती प्रक्रियाओं के महत्व पर जोर दिया गया।
न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्ट के 13.06.2023 के आदेश में कर्मचारियों के नियमितीकरण पर विचार करने का निर्देश दिया गया, लेकिन इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया। सरकार ने कर्मचारियों के दावों पर विचार करके और बाद में कानूनी और तथ्यात्मक परिस्थितियों के आधार पर उन्हें खारिज करके आदेश का अनुपालन किया। न्यायालय ने माना कि कर्मचारियों को नियमित करने से समान आउटसोर्सिंग अनुबंधों के तहत लगे अन्य कर्मचारियों के साथ असमानता और अन्याय पैदा होगा। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कर्मचारी अपने रोजगार के नियमितीकरण के हकदार नहीं थे। हालांकि न्यायालय ने बहाली, नियमितीकरण के बदले मौद्रिक मुआवजा देने के सिद्धांत को अपनाया और सभी 27 कर्मचारियों को 5,00,000 – 6,25,000 रुपए की सीमा में मौद्रिक मुआवजे के रूप में ही राहत प्रदान की, जिसकी गणना 2000 से 2010 की अवधि के लिए दी गई सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए 25,000/- रुपए की राशि और 2016-17 से 2022-23 तक दी गई सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए 50,000/- रुपए की राशि प्रदान करके की गई।