जगदलपुर (छत्तीसगढ़), 28 जनवरी (भाषा) छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सात जनवरी से शवगृह में रखे एक पादरी के शव को उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद दफना दिया गया।
तीन सप्ताह तक वैधानिक लड़ाई लड़ने के बाद पादरी के बेटे रमेश बघेल ने सोमवार को पिता के शव को पैतृक स्थान छिंदवाड़ा गांव से लगभग 25 किलोमीटर दूर करकापाल गांव के एक ईसाई कब्रिस्तान में दफनाया।
यह विवाद सात जनवरी को छिंदवाड़ा गांव में पादरी सुभाष बघेल की उम्र संबंधी बीमारियों से मृत्यु के बाद शुरू हुआ था।
उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को पादरी के अंतिम संस्कार के संबंध में खंडित फैसले के बाद उसे पड़ोसी गांव में ईसाइयों के लिए निर्दिष्ट स्थान पर दफनाने का आदेश सुनाया।
इस दौरान न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने कहा कि पादरी को परिवार की निजी कृषि भूमि पर दफनाया जाना चाहिए, लेकिन न्यायमूर्ति सतीशचंद्र शर्मा ने कहा कि शव को छत्तीसगढ़ में उनके गांव से दूर एक निर्दिष्ट स्थान पर दफनाया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा, ‘‘(पीठ के) सदस्यों के बीच अपीलकर्ता के पिता के अंतिम संस्कार के स्थान को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई।’’
पादरी का शव सात जनवरी से शवगृह में रखे होने तथा ‘‘शीघ्र और सम्मानजनक अंतिम संस्कार’’ के लिए पीठ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत निर्देश जारी करने पर सहमति व्यक्त की।
न्यायालय ने अपीलकर्ता को निर्देश दिया कि वह अपने पिता का अंतिम संस्कार करकापाल गांव के कब्रिस्तान में करे।
शीर्ष अदालत ने रमेश बघेल की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया।
याचिकाकर्ता ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने रमेश के पिता के शव को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने के अनुरोध संबंधी उनकी याचिका का निपटारा कर दिया था।
फैसले को लेकर पादरी के पुत्र रमेश बघेल ने कहा, ‘‘मैं उच्चतम न्यायालय के फैसले का पालन करता हूं। मैं फैसले से परे नहीं जा सकता। मैं उच्चतम न्यायालय तक गया लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार गईं। अदालत ने वही फैसला सुनाया जो गांव वाले कह रहे थे।’’
बघेल ने एक समाचार चैनल से कहा, ‘‘यह मेरे साथ अन्याय है। करीब डेढ़ से दो साल पहले गांव में सब कुछ सामान्य था.. लेकिन अचानक कुछ लोगों ने ग्रामीणों को भड़का दिया, जिन्होंने मेरे पिता को गांव में दफनाने पर आपत्ति जताई। यह मेरे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन था। मैं उनकी आपत्ति के खिलाफ अदालत में गया। यह मेरी जीत या हार के बारे में नहीं है। यह मानवता की हार है।’’
रमेश ने कहा कि ग्रामीणों ने ईसाई समुदाय से संबंधित लोगों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है, उनकी दुकानों से सामान खरीदना बंद कर दिया है तथा उनके खेतों में काम करना बंद कर दिया है।
इससे पहले, उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि उसे यह देखकर दुख हुआ कि छत्तीसगढ़ के एक गांव में रहने वाले व्यक्ति को अपने पिता के शव को ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार दफनाने के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा क्योंकि अधिकारी इस मुद्दे को सुलझाने में विफल रहे।
रमेश के अनुसार, छिंदवाड़ा गांव में एक कब्रिस्तान था जिसे ग्राम पंचायत ने शवों को दफनाने और दाह संस्कार के लिए मौखिक तौर पर आवंटित किया था।
बघेल ने दावा किया था कि छिंदवाड़ा गांव में एक कब्रिस्तान है जिसे ग्राम पंचायत ने शवों को दफनाने और अंतिम संस्कार के लिए मौखिक रूप से आवंटित किया है।
कब्रिस्तान में आदिवासियों के दफनाने, हिंदू धर्म के लोगों को दफनाने या उनका दाह संस्कार करने के अलावा ईसाई समुदाय के लोगों के लिए अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित किए गए थे।
ईसाइयों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में रमेश की चाची और दादा को इसी गांव के कब्रिस्तान में दफनाया गया था।
याचिका में कहा गया कि याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्य पादरी के पार्थिव शरीर को कब्रिस्तान में ईसाई लोगों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में दफनाना चाहते थे।
इसमें कहा गया है, ‘‘यह बात सुनकर कुछ ग्रामीणों ने इसका कड़ा विरोध किया और याचिकाकर्ता एवं उसके परिवार को इस भूमि पर याचिकाकर्ता के पिता को दफनाने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। वे याचिकाकर्ता के परिवार को उसके निजी स्वामित्व वाली भूमि पर शव को दफनाने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं।’’
बघेल के अनुसार, ग्रामीणों का कहना है कि उनके गांव में किसी ईसाई को दफनाया नहीं जा सकता, चाहे वह गांव का कब्रिस्तान हो या निजी जमीन।
उन्होंने कहा, ‘‘जब गांव वाले हिंसक हो गए, तो याचिकाकर्ता के परिवार ने पुलिस को सूचना दी, जिसके बाद 30-35 पुलिसकर्मी गांव पहुंचे। पुलिस ने परिवार पर शव को गांव से बाहर ले जाने का दबाव भी बनाया।’’
भाषा संजीव खारी
खारी
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(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)