आपातकाल में संसद ने जो किया, वह सब निरर्थक था, यह नहीं कहा जा सकता: न्यायालय |

आपातकाल में संसद ने जो किया, वह सब निरर्थक था, यह नहीं कहा जा सकता: न्यायालय

आपातकाल में संसद ने जो किया, वह सब निरर्थक था, यह नहीं कहा जा सकता: न्यायालय

:   Modified Date:  November 22, 2024 / 04:56 PM IST, Published Date : November 22, 2024/4:56 pm IST

नयी दिल्ली, 22 नवंबर (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ जैसे शब्द जोड़ने वाले 1976 के संशोधन की न्यायिक समीक्षा की गयी है और यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल के दौरान संसद ने जो कुछ भी किया वह सब निरर्थक था।

प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य की उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिनमें संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी।

हालांकि, प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘संबंधित संशोधन (42वां संशोधन) का इस न्यायालय द्वारा कई बार न्यायिक समीक्षा की गई है। संसद ने हस्तक्षेप किया है। हम यह नहीं कह सकते कि उस समय (आपातकाल में) संसद ने जो कुछ भी किया वह सब निरर्थक था।’’

‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था।

संशोधन के जरिये प्रस्तावना में भारत के वर्णन को ‘‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ से बदलकर ‘‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ किया गया था। भारत में आपातकाल की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक की थी।

पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर 25 नवंबर को अपना आदेश सुनाएगी।

सुनवाई के दौरान पीठ ने याचिकाकर्ता के अनुरोध के अनुसार मामले को बृहद पीठ को भेजने से इनकार कर दिया और कहा कि भारतीय अर्थ में ‘‘समाजवादी होना’’ एक ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ माना जाता है।

अधिवक्ता जैन ने कहा कि नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ के हालिया फैसले में, बहुमत की राय ने उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति वी आर कृष्ण अय्यर और ओ चिन्नप्पा रेड्डी- द्वारा प्रतिपादित ‘‘समाजवादी’’ शब्द की व्याख्या पर संदेह व्यक्त किया।

पीठ ने कहा, ‘‘भारत में समाजवाद को हम जिस तरह समझते हैं, वह अन्य देशों से बहुत अलग है। हमारे संदर्भ में, समाजवाद का मुख्य अर्थ कल्याणकारी राज्य है। बस इतना ही। इसने कभी भी निजी क्षेत्र को नहीं रोका है, जो अच्छी तरह से फल-फूल रहा है। हम सभी को इससे लाभ हुआ है।’’

न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि समाजवाद शब्द का इस्तेमाल दुनिया भर में अलग-अलग संदर्भों में किया जाता है और भारत में इसका मतलब है कि राज्य कल्याणकारी है और उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसरों की समानता प्रदान करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 1994 के ‘एस आर बोम्मई’ मामले में ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना था।

अधिवक्ता जैन ने दलील दी कि संविधान में 1976 का संशोधन लोगों की बात सुने बिना पारित किया गया था, क्योंकि यह आपातकाल के दौरान पारित किया गया था और इन शब्दों को इसमें शामिल करने का अर्थ होगा लोगों को विशिष्ट विचारधाराओं का पालन करने के लिए मजबूर करना।

जैन ने इस मुद्दे को एक बड़ी पीठ को भेजने का अनुरोध करते हुए कहा, ‘‘जब प्रस्तावना एक कट-ऑफ तिथि के साथ आती है, तो इसमें नए शब्द कैसे जोड़े जा सकते हैं?’’

एक अन्य याचिकाकर्ता अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में इन्हें शामिल किये जाने का विरोध करते हैं।

पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है और यह शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित है।

अदालत ने कहा, ‘‘प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। यह अलग नहीं है।’’

पीठ ने यह स्पष्ट किया कि अदालत इसकी समीक्षा नहीं करेगी कि 1976 में लोकसभा संविधान में संशोधन नहीं कर सकती थी तथा प्रस्तावना में संशोधन करना संविधान प्रदत्त शक्ति थी, जिसका प्रयोग केवल संविधान सभा द्वारा किया जा सकता था।

उपाध्याय ने न्यायालय से अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल के विचार सुनने का आग्रह करते हुए दलील दी कि 42वें संशोधन को राज्यों द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया।

एक अलग याचिका दायर करने वाले पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि बाद में जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भी इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने का समर्थन किया था। उन्होंने कहा कि सवाल यह है कि क्या इसे प्रस्तावना में एक अलग पैराग्राफ के रूप में जोड़ा जाना चाहिए। स्वामी ने कहा कि यह नहीं कहा जाना चाहिए कि 1949 में इसे समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष के रूप में अपनाया गया था।

स्वामी ने कहा, ‘‘न केवल आपातकाल के दौरान संसद ने इसे अपनाया, बल्कि बाद में जनता पार्टी सरकार की संसद ने भी दो तिहाई बहुमत से इसका समर्थन किया, जिसमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के इस विशेष पहलू को बरकरार रखा गया।’’

उन्होंने कहा, ‘‘यहां मुद्दा केवल इतना है- क्या हम यह मानेंगे कि इसे एक अलग पैराग्राफ के रूप में होना चाहिए, क्योंकि हम यह नहीं कह सकते कि 1949 में इन शब्दों को अपना लिया गया था। इसलिए, एकमात्र मुद्दा यह रह जाता है कि इसे स्वीकार करने के बाद, हम मूल पैराग्राफ के नीचे एक अलग पैराग्राफ रख सकते हैं।’’

उच्चतम न्यायालय ने 21 अक्टूबर को कहा था कि धर्मनिरपेक्षता को सदैव भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग माना गया है तथा ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को पश्चिमी अवधारणा की तरह नहीं माना जाना चाहिए।

नौ फरवरी को शीर्ष अदालत ने पूछा था कि क्या संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, जबकि इसकी स्वीकृति की तिथि 26 नवंबर, 1949 को बरकरार रखा जा सकता है।

इससे पहले सितंबर, 2022 में शीर्ष अदालत ने स्वामी की याचिका को ‘बलराम सिंह और अन्य’ द्वारा दायर अन्य लंबित मामलों के साथ सुनवाई के लिए संबद्ध किया था। उन्होंने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को हटाने का अनुरोध किया था।

स्वामी की दलील में कहा गया कि प्रस्तावना न केवल संविधान की आवश्यक विशेषताओं को, बल्कि उन मौलिक शर्तों को भी इंगित करती है, जिनके आधार पर इसे एकीकृत समुदाय बनाने के लिए अपनाया गया था।

भाषा आशीष सुरेश

सुरेश

 

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