बरुण सखाजी, सह-कार्यकारी संपादक, आईबीसी24
फिल्में समाज का आइना होती हैं और समाज की रुपहली आरजू भी। हमे अब तक यही रटाया गया कि फिल्में सिर्फ आइना हैं। मैं नहीं मानता कि ये सिर्फ आइना हैं। बेशक समाज के विभिन्न हिस्सों में बहुत कुछ ऐसी जीवनशैलियां हैं जिनका प्रचलन छोटे दायरे में है, लेकिन फिल्मे इन्हें समाज में व्यापक के रूप में भी पेश करती हैं। कुछ ऐसे भाव भी होते हैं जो व्यवहार में अस्तित्व में नहीं होते लेकिन कल्पना में होते हैं। फिल्में कई बार इनका लाभांश भी उठाती हैं। इन्हें ही पेश करती हैं तब वे सिर्फ आइना नहीं बल्कि समानांतर समाज की रुपहली आरजू भी हुईं। कुछ वर्षों से फिल्मों के कथानक और प्रस्तुतियों पर जन मानस में सवाल हैं। कभी धर्म के मोर्चे से हमले हैं तो कभी संस्कृति और कभी जात-बिरादरी जैसी अस्मिताओं के जरिए। यह हो सकता है आसानी से कह दिया जाए कि यह सब मोदी या भाजपा की राजनीतिक बुनावट और परिवेश का नतीजा है, लेकिन यह पूरा सच नहीं।
बदलते सामाजिक परिवेश में जिन्हें भी पल्लवित होने का मौका मिला है, इसमें धार्मिक जागरण बड़ा काम कर रहा है। यह सिर्फ भारत में नहीं पूरी दुनिया में हो रहा है। तभी अधिकतर बड़े देशों में ऐसे नेता राजनीति में सत्ताधीश हैं जो बहुसंख्य समाज की अस्मिता के रक्षक बनकर उभरे हैं। मोदी के आने से ऐसा माहौल हुआ है यह कहना अधूरी बात है, पूरी बात ये ही कि मोदी आए ही इस माहौल के कारण है। अभी तक यह नहीं कह रहा हूं कि माहौल खराब है, बल्कि यह कह रहा हूं कि माहौल वैसा नहीं है जैसा था। इसका अर्थ यह भी नहीं कि जैसा था वह खराब था, किंतु यह जरूर है वह वैसा नहीं था जैसा अभी है।
छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले मे अपने प्रवास के दौरान नवनियुक्त शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा है कि वे फिल्मों पर सेंसर बोर्ड की तर्ज पर धार्मिक सेंसर बोर्ड स्थापित करेंगे। इसका कार्य फिल्म में हिंदू धर्म को नुकसान पहुंचाने वाला कोई कंटेंट तो नहीं है, यह देखना होगा। यह बात शंकराचार्य ने तब कही है जब हम 2022 में हैं। तब देश में मोदी का शासन है। एक बात योग गुरू बाबा रामदेव ने 2011 में कही थी। उन्होंने कहा था भारत स्वाभिमान मंच के बैनर तले एक सेना का भी गठन करेंगे। यह बात उन्होंने तब कही थी जब भारत पर मोदी का शासन नहीं था। और पीछे चलते हैं। 2000 के बाद से लगातार अपनी स्पीच में इस्लामिक स्कॉलर जाकिर नायक बताते रहे हैं कि मुसलमान के लिए शरिया बड़ा है। अगर किसी देश का कानून और शरिया आपस में टकराते हैं तो शरिया को ही मानना चाहिए। यानि कानून सिर्फ शरिया है, बाकी खिलौने। और पीछे चलते हैं जब अनेक बार सत्ता, सरकारों के पैरलल संस्थागत गठन की कवायदें होती रही हैं। भारत में नक्सल आंदोलन 1969 से दखल दे रहा है। कथित जनताना सरकार के नाम पर मुख्य धारा की शक्ति को चुनौति देना आम है। कह सकते हैं, उस किसी भी दौर में न मोदी थे न भाजपा।
निष्कर्ष यह है कि जब हमारी मौजूदा व्यवस्था ढहने लगती है तभी पैरलल कोई दूसरी व्यवस्था मान्यता पाती है। ऐसा ही राजवंशों के समय हुआ और ऐसा ही आज कथित लोकवंशों के समय हो रहा है। इसमें कुछ नया नहीं। हायतौबा की बजाए हमे यह सोचना चाहिए कि कहीं हम वास्तव में देश के संचालन के लिए एक समान मताधिकार वाली बहुदोषपूर्ण व्यवस्था को ढोने को मजबूर तो नहीं?