चित्रकोट: जिस तरह देश की सियासत का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है ठीक इसी तरह छत्तीसगढ़ की राजनीति को भी बस्तर सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। राजनीतिक पंडितो का भी मानना है कि सत्ता के लिए बस्तर जीतना सबसे जरूरी है। रायपुर की राजनीति का रास्ता बस्तर की वादियों से होकर ही गुजरता है। यही वजह है की अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर से लेकर मौजूदा छत्तीसगढ़ की राजनीति में बस्तर का दखल हमेशा देखा गया है। हर सियासी दलों की नजर बस्तर पर रही है और हर कोई यहाँ से सबसे ज्यादा विधायकों की जीत भी सुनिश्चित करने की कोशिश में रहती है।
प्रदेश में एक बार फिर विधानसभा चुनाव होने जा रहे है, ऐसे में आज हम बात कर रहे है बस्तर के उन मुद्दों की जिसका सीधे तौर पर चुनावी असर देखा जाएगा। आदिवासियों की राजनीति का गढ़ रहा बस्तर आज भी अनेकों समस्याओं से जूझ रहा है। इन्ही समस्याओ, उनकी वजह और निदान पर चर्चा करने आईबीसी24 लेकर आया है बस्तर का चुनाव..पार लगेगी किसकी नाव? का विशेष कवरेज। बस्तर के सियासत की गहराई को समझाने और यहाँ की समस्याओं पर चर्चा करने के लिए विशेषज्ञ के तौर पर हमारे साथ मौजूद है पत्रिका बस्तर के सम्पादक मनीष गुप्ता, हरिभूमि ब्यूरो प्रमुख सुरेश रावल, दंडकारण्य समाचार के प्रमुख श्रीनिवास रथ, नवभारत के बस्तर क्षेत्र प्रतिनिधि शिव प्रकाश, बस्तर क्षेत्र के वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह, आईबीसी24 के बस्तर प्रतिनिधि नरेश मिश्रा, आईबीसी24 के एक्जक्यूटिव एडिटर बरुन सखाजी और सबसे प्रमुख आईबीसी24 के एडिटर-इन-चीफ रविकांत मित्तल।
कश्मीर की खूबसूरत वादियों से जिसकी तुलना होती रही। बस्तर जिसे धरती का स्वर्ग भी कहा गया। वो बस्तर जिसकी वादियों को लेकर ना जाने कितनी ही किताबे लिखी गई। इंद्रावती के बहाव से लेकर दुर्गम पहाड़ो से झलकने वाली हरी-भरी वादियों वाला बस्तर आखिर पर्यटन के मामले में क्यों पिछड़ गया? इस बारे में भी पत्रकारों की राय यही है कि क्षेत्र में नक्सलवाद इसकी बड़ी वजह रही। देश के दुसरे हिस्सों में बस्तर इस दशक में दहशत का पर्याय बन गया है। यहाँ होने वाली नक्सल घटनाओं और हिंसाओं ने बस्तर की ख्यति को काफी नुकसान पहुंचाया। हालांकि यह सभी घटनाएँ बस्तर के भीतरी इलाकों में घटित हुई और शहरी क्षेत्र इससे अछूता रहा लेकिन जनप्रतिनिधि इस अवधारणा को लोगों के मन से दूर करने में नाकाम रहे। यही वजह है कि बस्तर की पहचान नक्सल हिंसाओं के लिए होती रही और पर्यटक यहाँ आने से कतराते रहे।
दूसरी तरफ कश्मीर भी नक्सलवाद की तरह आतंकवाद से दशकों तक जूझता रहा लेकिन पिछले साल यहाँ पर्यटकों की संख्या में भारी इजाफा देखा गया। इसके पीछे की वजह यहाँ शान्ति व्यवस्था के लिए किये गए काम रहे है तो क्या बस्तर में भी इसी तरह पर्यटकों की वापसी कराई जा सकती है। इस पर भी पत्रकारों का मानना है कि निश्चित ही बस्तर भी अब अपनी यह पुरानी पहचान पीछे छोड़ रहा है और आने वाले समय में इसका फायदा देखने को मिलेगा।