भारत की कोयले की मांग को पूरा करते हुए हसदेव का संरक्षण संभव: वन अधिकार कार्यकर्ता |

भारत की कोयले की मांग को पूरा करते हुए हसदेव का संरक्षण संभव: वन अधिकार कार्यकर्ता

भारत की कोयले की मांग को पूरा करते हुए हसदेव का संरक्षण संभव: वन अधिकार कार्यकर्ता

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Modified Date: October 6, 2024 / 01:47 PM IST
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Published Date: October 6, 2024 1:47 pm IST

(गौरव सैनी)

रायपुर, छह अक्टूबर (भाषा) वन अधिकार कार्यकर्ता आलोक शुक्ला का मानना है कि भारत की कोयला जरूरतों को पूरा करने के साथ ही छत्तीसगढ़ के जैवविविधता से परिपूर्ण हसदेव अरण्य वन को बचाया जा सकता है। वहां सैकड़ों आदिवासी पेड़ों की कटाई और कोयला खनन का विरोध कर रहे हैं।

‘गोल्डमैन एनवायरमेंट प्राइज’ या ‘हरित नोबेल’ पुरस्कार से इस वर्ष सम्मानित शुक्ला ने ‘पीटीआई-भाषा’ के साथ साक्षात्कार में कहा कि यह दावा कि कोयला खनन से विकास होता है और पुनर्वास से लोगों का जीवन बेहतर होता है ‘भ्रामक’ है।

उन्होंने कहा कि समुदाय तब विरोध करते हैं जब कंपनियां अपने वादे तोड़ी हैं और मूल निवासियों के अधिकार और आजीविका छीन लेती हैं।

प्राचीन हसदेव वनों को बचाने के लिए 2012 से जारी सामुदायिक अभियान ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ का नेतृत्व कर रहे शुक्ला ने कहा,‘‘ इससे बड़े पैमाने पर अविश्वास पैदा हुआ है। कोई भी समुदाय अपनी जमीन लोभी कंपनियों को नहीं देना चाहता है और सरकार को यह समझना चाहिए।’’

केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार भारत की कोयले की मांग 2030 तक 1.3 से 1.5 अरब टन तक पहुंचने की उम्मीद है जबकि वर्तमान कोयला उत्पादन करीब एक अरब टन तक पहुंच चुका है।

छत्तीसगढ़ में 55 अरब टन कोयले का भंडार है, जिसमें से 518 करोड़ टन हसदेव में है।

शुक्ला ने कहा, ‘‘सरकार ने भविष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए पहले ही खनन परियोजनाएं आवंटित कर दी हैं… 500 करोड़ टन किसी अन्य स्थान से भी आ सकता है। भारत की कोयला मांग को पूरा करते हुए इस क्षेत्र को संरक्षित करना संभव है।’’

उन्होंने दावा किया कि अन्य कोयला ब्लॉक उपलब्ध होने के बावजूद सरकार का हसदेव में खनन कार्य जारी रखने का हठ ‘‘कुछ खास कंपनियों को लाभ पहुंचाने की मंशा से प्रेरित’’ प्रतीत होता है।

हसदेव अरण्य वन 1,701 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जिसमें 25 लुप्तप्राय प्रजातियां, 92 पक्षी प्रजातियां और 167 दुर्लभ और औषधीय पौधों की प्रजातियां पाई जाती हैं।

इस वन पर करीब 15,000 आदिवासी अपनी आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के लिए निर्भर हैं, और उनकी ग्राम सभाएं लगातार कोयला खनन परियोजनाओं का विरोध करती रही हैं।

इस क्षेत्र में 23 कोयला ब्लॉक हैं, जिनमें से तीन – परसा, परसा ईस्ट केते बसन (पीईकेबी) और केते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक (केईसीबी) को राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित हैं और इन खदानों का संचालन अदाणी समूह कर रहा है।

पीईकेबी कोयला खदान सरगुजा जिले में 1,898 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैला हुआ है। पहले चरण में 762 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन कार्य पूरा हो चुका है जबकि दूसरे चरण में शेष 1,136 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन जारी है।

शुक्ला ने कहा, ‘‘दूसरे चरण के दौरान अब तक 208 हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 45,000 से 50,000 पेड़ काटे जा चुके हैं तथा कुल 1,100 हेक्टेयर क्षेत्र में 2.5 लाख पेड़ काटे जाएंगे।’’

उन्होंने कहा कि सूरजपुर और सरगुजा जिलों के परसा कोयला खदान में खनन के खिलाफ स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

शुक्ल ने कहा, ‘‘अभी तक कोई पेड़ नहीं काटा गया है, लेकिन काम शुरू करने के प्रयास जारी हैं। एक बड़ा मुद्दा यह है कि परसा में खनन के कारण विस्थापित होने वाले तीन गांवों हरिहरपुर, साल्ही और फतेहपुर की ग्राम सभाओं ने कभी भी अपनी स्वतंत्र और निष्पक्ष सहमति नहीं दी।’’

उन्होंने दावा किया, ‘‘राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की जांच में पाया गया कि इस परियोजना के लिए मंजूरी दबाव में फर्जी सिफारिशों के जरिए प्राप्त की गई थी। जांच रिपोर्ट जल्द ही आने की उम्मीद है।’’

शुक्ला ने बताया कि तीसरी खदान केते एक्सटेंशन 1,725 ​​हेक्टेयर में फैली हुई है, जिसमें से 99 प्रतिशत वन क्षेत्र है। पर्यावरण मंजूरी के लिए सार्वजनिक सुनवाई हो चुकी है, लेकिन वन मंजूरी अभी भी लंबित है।

वन कार्यकर्ता ने बताया, ‘‘हम मांग कर रहे हैं कि हसदेव में पहले से मौजूद खदानों के अलावा किसी और खदान को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। 26 जुलाई, 2022 को छत्तीसगढ़ विधानसभा ने हसदेव में नयी कोयला खदानों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित किया। राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक हलफनामा भी दाखिल किया है जिसमें कहा गया है कि राजस्थान की कोयले की जरूरत (2.1 करोड़ टन) पीईकेबी खदान के जरिए पूरी की जा रही है।’’

शुक्ला ने कहा कि भारतीय वन्यजीव संस्थान ने चेतावनी दी है कि हसदेव में खनन से बांगो बांध (हसदेव नदी पर 1961-62 में निर्मित) को गंभीर खतरा पैदा होगा और मानव-हाथी संघर्ष की स्थिति और बिगड़ेगी।

उन्होंने कहा कि वास्तव में, पिछले पांच वर्षों में छत्तीसगढ़ में मानव-पशु संघर्ष में 200 से अधिक लोगों की जान गई हैं जो नक्सलवाद के कारण होने वाली मौतों के बाद दूसरे स्थान पर है।

वन कार्यकर्ता ने ग्राम सभा की सहमति के मुद्दे पर कहा कि सहमति पारदर्शी तरीके से ली जानी चाहिए और समुदाय को आश्वस्त किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘ अगर वे सहमत हो जाते हैं, तो कोई विवाद नहीं होगा।’’

शुक्ला ने कहा कि यह दावा भ्रामक है कि खनन से विकास होगा।

उन्होंने कहा, ‘‘दंतेवाड़ा में पांच दशकों से लौह अयस्क का खनन किया जा रहा है, लेकिन वहां के आदिवासियों को अब भी बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की सुविधा नहीं है। वे लौह अयस्क खनन से प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं।’’

उन्होंने कहा कि सरकार दावा करती है कि पुनर्वास से लोगों का जीवन बेहतर होगा, लेकिन वे इसे साबित करने के लिए एक भी उदाहरण नहीं दे सकती है।

शुक्ला ने सवाल किया, ‘‘अगर दिल्ली में यूरेनियम पाया जाता, तो क्या आप लोगों को विस्थापित करके वहां खनन शुरू करेंगे?’’ उन्होंने कहा कि जब आदिवासी शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल सेवा की मांग करते हैं, तो उन्हें जंगल छोड़ने के लिए कहा जाता है।

भाषा धीरज शोभना

शोभना

 

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