नयी दिल्ली, 22 जुलाई (भाषा) भारतीयों में बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को रेखांकित करते हुए वित्त वर्ष 2023-24 की आर्थिक समीक्षा में इससे निपटने के लिए आमूलचूल परिवर्तन का आह्वान किया गया है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की तरफ से सोमवार को संसद में पेश आर्थिक समीक्षा 2023-24 के मुताबिक, समाज में मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना स्वास्थ्य और आर्थिक दोनों नजरिये से जरूरी है।
इस विषय पर पहली बार व्यापक चर्चा करते हुए आर्थिक समीक्षा में इस मुद्दे के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि मानसिक स्वास्थ्य व्यक्तियों के शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की तुलना में उत्पादकता को अधिक व्यापक रूप से प्रभावित करता है।
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएमएचएस) 2015-16 के आंकड़ों का हवाला देते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि भारत में 10.6 प्रतिशत वयस्क मानसिक विकारों से पीड़ित हैं, जबकि विभिन्न मानसिक विकारों के लिए उपचार का अंतराल 70 से 92 प्रतिशत के बीच है।
एनएमएचएस के अनुसार, शहरी महानगर क्षेत्रों में 13.5 प्रतिशत मानसिक रुग्णता पाई गई जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 6.9 प्रतिशत और शहरी गैर-महानगरीय क्षेत्रों में 4.3 प्रतिशत पाई गई। इसमें कहा गया है कि 25 से 44 वर्ष की आयु के व्यक्ति मानसिक बीमारियों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
एनसीईआरटी के ‘स्कूली छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण सर्वेक्षण’ का हवाला देते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या बढ़ रही है। इसमें कोविड-19 महामारी के कारण और वृद्धि हुई है।
समीक्षा में एक सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए कहा गया है कि 11 प्रतिशत छात्रों ने चिंता महसूस करने की बात कही है, 14 प्रतिशत ने अत्यधिक भावनात्मक उतार-चढ़ाव का जिक्र किया जबकि 43 प्रतिशत छात्रों ने मनोदशा में बहुत तेजी से बदलाव की बात कही है। सर्वेक्षण में शामिल 50 प्रतिशत छात्रों ने पढ़ाई और 31 प्रतिशत ने परीक्षा तथा परिणामों को चिंता का कारण बताया।
समीक्षा में कहा गया है ‘‘मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं और उसकी क्षमता को बाधित करती हैं। समग्र आर्थिक स्तर पर, मानसिक स्वास्थ्य विकार का परिणाम उत्पादकता में कमी, विकलांगता और स्वास्थ्य देखभाल की बढ़ती लागत के कारण महत्वपूर्ण उत्पादकता हानि के रूप में मिलता है।’’
इसमें कहा गया है कि भारत मानसिक स्वास्थ्य को समग्र कल्याण के मूलभूत पहलू के रूप में मान्यता देकर नीतिगत विकास में सकारात्मक गति पैदा कर रहा है। समीक्षा के अनुसार, ‘‘विभिन्न नीतियां लागू हैं और उनका उचित कार्यान्वयन जमीनी स्तर पर सुधार को गति दे सकता है। फिर भी, मौजूदा कार्यक्रमों में कुछ खामियाँ हैं जिन्हें उनकी प्रभावशीलता को अधिकतम करने के लिए दूर करने की जरूरत है।’’
इसमें कहा गया है कि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की कमी और इसे ‘सामाजिक धब्बे’ के तौर पर देखने का नजरिया ईमानदारी से तैयार किए गए कार्यक्रम को अव्यावहारिक बना सकता है।
आर्थिक समीक्षा कहती है, ‘‘मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को हल करने में आदर्श बदलाव लाने और व्यापक दृष्टिकोण तथा आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। सोच बदलने की शुरुआत शारीरिक बीमारियों को स्वीकार करने और मानसिक स्वास्थ्य की समस्या का उपचार तलाशने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति का संज्ञान लेने से होती है।’’
समीक्षा में सुझाव दिया गया है कि स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य समस्या के समाधान के प्रभावी तरीकों में शिक्षकों और छात्रों के लिए उम्र के अनुरूप मानसिक स्वास्थ्य पाठ्यक्रम का विकास, सकारात्मक भाषा को प्रोत्साहन, सामुदायिक स्तर पर बातचीत को बढ़ावा देना और प्रौद्योगिकी की भूमिका का संतुलन शामिल हो सकता है।
बच्चों और किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में वृद्धि अक्सर इंटरनेट और विशेष रूप से सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से जुड़ी होती है। बच्चों का अनियंत्रित इंटरनेट उपयोग कई समस्याओं को जन्म दे सकता है, जिनमें सोशल मीडिया का अधिक एवं जुनूनी इस्तेमाल या ‘डूम स्क्रॉलिंग’ से लेकर ‘साइबर बुलिंग’ जैसी गंभीर समस्याएं शामिल हैं।
भारत के संदर्भ में, मानसिक स्वास्थ्य पर इंटरनेट के बढ़ते उपयोग के असर का संकेत राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के एक अध्ययन से मिलता है। ‘‘बच्चों द्वारा मोबाइल फोन और इंटरनेट एक्सेसिबिलिटी वाले अन्य उपकरणों के उपयोग के प्रभाव’’ पर 2021 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, 23.8 प्रतिशत बच्चे बिस्तर पर लेटे हुए स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं और 37.2 प्रतिशत बच्चे स्मार्टफोन के उपयोग के कारण एकाग्रता में कमी का अनुभव करते हैं।
भाषा
मनीषा प्रेम
प्रेम
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