पटना। बिहार का सेनारी नरसंहार कोई नहीं भूल सकता। 18 मार्च 1999 की वो रात काली रात बन गई। भेड़-बकरियों की तरह नौजवानों की गर्दनें काटी जा रही थी। एक की कटने के बाद दूसरा अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। वहीं तड़प-तड़पकर सभी कुछ पलों में ही मौत के आगोश में समा गए। सोच कर देखिए दिल दहल जाएगा।
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बिहार के सेनारी गांव में हुए नरसंहार का जिक्र करते हुए लोगों की रूंह काप जाती है। दरअसल 90 के दशक में बिहार जातीय संघर्ष से जूझ रहा था। सवर्ण और दलित जातियों में खूनी जंग चल रहा था। जमीन-जायदाद को लेकर एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। एक को रणवीर सेना नाम के संगठन का साथ मिला तो दूसरे को माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर का। 18 मार्च 1999 की रात को सेनारी गांव में 500-600 लोग घुसे। पूरे गांव को चारों ओर से घेर लिया। घरों से खींच-खींच के मर्दों को बाहर निकाला गया। 34 लोगों को खींचकर बिल्कुल जानवरों की तरह गांव से बाहर ले जाया गया।
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जानकारी के अनुसार गांव के बाहर सभी को एक जगह इकट्ठा किया गया। फिर तीन ग्रुप में सबको बांट दिया गया। फिर लाइन में खड़ा कर बारी-बारी से हर एक का गला काटा गया। पेट चीर दिया गया। 34 लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई। प्रतिशोध इतना था कि गला काटने के बाद तड़प रहे लोगों का पेट तक चीर दिया जा रहा था।
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नरसंहार में सभी भूमिहार जाति से थे और मारनेवाले एमसीसी के। इस घटना के अगले दिन पटना हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार रहे पद्मनारायण सिंह सेनारी गांव पहुंचे। जहां अपने परिवार के 8 लोगों की फाड़ी हुई लाशें देखकर उनको दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। इस घटना के बाद बहुत लोग शहरों से नौकरी-पढ़ाई छोड़कर गांव में रहने लगे, उनका बस एक ही मकसद था बदला।
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