Growing tradition of freebies in the india

बतंगड़: रेवड़ी कल्चर से लगती देश की श्री ‘लंका’

Edited By Written By :  
Modified Date: June 16, 2023 / 02:55 PM IST
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Published Date: June 16, 2023 1:35 pm IST

सौरभ तिवारी,
डिप्टी एडिटर, IBC24

मतदाताओं को लुभाने के लिए शराब, साड़ी-कंबल और रुपए बांटने की परंपरा काफी पुरानी है। महज एक बोतल दारू और चंद रुपयों के बदले कई मतदाता अपने भाग्य के इकरारनामे पर अपने वोट की मुहर लगा देते हैं। मतदाताओं को प्रलोभन देकर वोट खरीदने का ये तरीका आचार संहिता के उल्लंघन की श्रेणी में आता है। (Growing tradition of freebies in the india) कैसी विडंबना है कि आचार संहिता के लिहाज से अवैध माना जाने वाला यही ‘प्रलोभन’ अब ‘गारंटी’ बनकर पार्टियों की जीत की गारंटी बनता जा रहा है। बिकता है वोटर खरीदने वाला चाहिए।

आचार संहिता के लिहाज से अवैध माने जाने वाले ‘प्रलोभन’ और वेलफेयर के नाम पर बंटने वाली ‘रेवड़ी’ में अंतर केवल इतना है कि दारू, कंबल और रुपयों का इंतजाम उम्मीदवार अपनी जेब से करता है, लेकिन रेवड़ी का चुकारा टैक्सपेयर के टैक्स से किया जाता है। ऐसे में सवाल बड़ा मौजूं हो जाता है कि रेवड़ी की कीमत टैक्स पेयर के पैसों से क्यों चुकाई जाए? आखिर इसका भुगतान पार्टियों के द्वारा ही क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

मुफ्तखोरी की कौन कितनी बड़ी बोली लगा सकता है, सारी होड़ बस इसी बात पर आकर सिमट गई है। जो घोषणा पत्र कभी दलों की विचारधारा और उनकी भावी कार्य योजनाओं के दस्तावेज माने जाते थे, अब ग्राहकों को फंसाने के लिए छापे जाने वाले बजारू पंफलेट बनकर रह गए हैं। (Growing tradition of freebies in the india) बिजनेस में बिक्री बढ़ाने के लिए प्रोडक्ट के साथ कुछ फ्री और डिस्काउंट का फंडा आजमाया जाता है तो चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए वोट के बदले फ्री देने का नुस्खा आजमाया जा रहा है। अब मतदाताओं/ ग्राहकों को कौन समझाए कि कंपटीशन/ फैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा मत करें।

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चुनावों में जो फ्री कल्चर कभी साउथ की पहचान हुआ करता था, वो अब अखिल भारतीय सियासत की अनिवार्य बुराई बन चुका है। साउथ की पार्टियां चुनावी जीत के लिए फ्री का टोटका आजमाती रही हैं लेकिन उत्तरभारत में मतदाताओं की अपनी-अपनी पार्टियों के प्रति वैचारिक आस्था के आगे ये चुनावी खैरात टिक नहीं पाती थी। लेकिन अब उत्तरभारत में भी मुफ्तखोरी की लत लग चुकी है, जिसका श्रेय नई सियासत की शुरुआत करने के वादे के साथ गठित हुई आम आदमी पार्टी को जाता है। वाकई देश में रेवड़ी सियासत को स्थापित करके आम आदमी पार्टी ने राजनीति बदलने के अपने वादे को बखूबी निभाया है। दिल्ली और उसके बाद पंजाब में एकतरफा जीत में दीगर पॉलिटिकल फैक्टर के अलावा फ्री बिजली, पानी, यात्रा जैसे वादों की बड़ी भूमिका रही है। मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन।

पिछले सालों में हुए विधानसभा चुनावों की ही बात करें तो मुफ्त वादों ने जीत में अहम भूमिका निभाई है। 2020 में हुए दिल्ली चुनाव के बाद से अब तक हुए 8 राज्यों के चुनाव में मुफ्त वादा जीत का अहम फैक्टर साबित हुआ है। कर्नाटक में हुए हालिए चुनाव में कांग्रेस की ‘5 गारंटियों’ के आगे भाजपा के बजरंगबली की भी नहीं चली। इससे पहले हिमाचल में भी कांग्रेस की फ्री स्कीम्स ने पार्टी अध्यक्ष के गृह-राज्य में ही बीजेपी को बुरी तरह पटखनी दे दी। ऐसा नहीं है इन राज्यों में भाजपा ने अपनी ‘सेल’ नहीं लगाई, लेकिन कांग्रेस के धांसू ऑफर भाजपा के वादों पर भारी पड़ गए। कर्नाटक में कांग्रेस के महिलाओं को 2000 रुपए मासिक भत्ता, युवाओं को बेरोजगारी भत्ता, 200 यूनिट तक फ्री बिजली जैसे वादों के आगे बीजेपी की 3 एलपीजी सिलेंडर और आधा लीटर दूध फ्री जैसी घोषणाएं लुभाने में नाकाम रहीं। हिमाचल में तो कांग्रेस ने 300 यूनिट तक बिजली फ्री का ऑफर दिया हुआ था। इसके अलावा सन 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में फ्री कोरोना वैक्सीन ने भाजपा को सत्ता दिलाने में बड़ी मदद की थी। वहीं 2021 में हुए पश्चिम बंगाल और तमिलनाडू के अलावा 2022 में हुए उत्तरप्रदेश और पंजाब के चुनावों में भी फोकटवाद निर्णायक साबित हुआ।

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थोड़ा और पीछे जाएं तो 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए चुनावों में भी कांग्रेस ने अपने फ्री वादे के दांव से भाजपा को पटखनी दी थी। खास बात ये रही कि कांग्रेस ने इन तीनों राज्यों में सत्ता हासिल करने के लिए ‘सत्ता के दावेदार’ नेताओं से भी कुछ गोपनीय वादा कर रखा था। (Growing tradition of freebies in the india) मध्यप्रदेश में तो भाजपा ने सत्ता के दावेदार नेता के खिलाफ की गई वादाखिलाफी का फायदा उठाकर सत्ता चुरा ली, लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ये कोशिश नाकाम रही। बहरहाल, ये तमाम चुनाव तो निबट गए लेकिन इन चुनावों के दौरान जनता से किए गए फ्री वादे के आर्थिक दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जनता को बांटी गईं रेवड़ियों की कीमत राज्यों को आर्थिक बोझ के तौर पर चुकानी पड़ रही है।

हालिया हुए कर्नाटक चुनाव की ही बात करें तो सत्ता संभालने के बाद कांग्रेस ने अपनी ‘पांच गारंटियों’ को लागू कर दिया है। इन पांच गारंटियों को लागू करने में मोटे तौर पर 50 हजार करोड़ रुपए का खर्च आना है। विपक्ष इन गारंटियों के पूरा होने पर पहले ही संशय जता चुका है। इधर इसके रुझाने आने भी शुरू हो चुके हैं। महिलाओं की फ्री बस यात्रा पर ही ब्रेक लगता दिख रहा है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक के वित्त विभाग ने प्रदेश की माली हालत को देखते हुए वेतन और ईंधन पर हुए खर्च के भुगतान के लिए कर्नाटक सड़क परिवहन को अतिरिक्त अनुदान प्रदान करने से हाथ खड़े कर दिए हैं। इधर बीपीएल परिवार के प्रत्येक सदस्य को हर माह मिलने वाले 10 किलो मुफ्त चावल पर भी ग्रहण लग सकता है। कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार ने कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को FCI की तरफ से चावल की बिक्री करने से इनकार कर दिया है। बाकी 3 गारंटियों को अमल में लाने से पैदा होने वाले हालात का भी विपक्ष उत्सुकता से इंतजार कर रहा है। भाजपा ने तो सवाल पूछ भी लिया है कि क्या अब कांग्रेस इन गारंटियों को पूरा करने के लिए अपनी जेब से भुगतान करेगी?

उधर हिमाचल में भी गारंटियों को पूरा करने में प्रदेश की कांग्रेस सरकार का दम फूलता जा रहा है। हिमाचल प्रदेश की आर्थिक बदहाली का आलम ये है कि प्रदेश एक हजार करोड़ रुपए के ओवरड्राफ्ट में चला गया है। इससे उबरने के लिए सरकार 800 करोड़ रुपए का लोन ले रही है। यह लोन लेने के बाद भी सरकार 200 करोड़ रुपए के ओवरड्राफ्ट में रहेगी। पैसों की तंगी का खामियाजा वेतनभोगी वर्ग को उठाना पड़ रहा है। आलम ये है कि अधिकांश निगमों-बोर्डों के कर्मचारियों के अलावा हिमाचल पथ परिवहन निगम के कर्मचारियों को तनख्वाह के लाले पड़ गए हैं।

मुफ्त सौगातों के सहारे सत्ता हथियाने वाले बाकी राज्यों का भी बुरा हाल है। सभी राज्य कर्ज में डूबे हैं। अठन्नी आमदनी करके रुपया खर्च करने की वजह से इन राज्यों में राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में राज्यों के पास कर्ज लेकर घी पीने का ही एकमात्र चर्वाकीय रास्ता रह जाता है। लेकिन कर्ज लेने की भी एक सीमा है। साल 2023-24 के केंद्रीय बजट में राज्यों की कर्ज सीमा को कम कर दिया गया है। राज्य अब अपनी जीडीपी का केवल 2.5 फ़ीसदी हिस्सा ही कर्ज के तौर पर उठा सकते हैं। जाहिर तौर पर जब राज्यों की सारी कमाई रेवड़ी बांटने में ही खर्च हो जाएगी तो इसका असर विकास कार्यों पर तो पड़ेगा ही। यही वजह है कि राज्यों के पास आधारभूत संरचना के लिए रुपयों की तंगी आ रही है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के पूर्व मंत्री ने तो प्रदेश सरकार को चुनौती दे रखी है कि वो पिछले साढ़े चार सालों में राजधानी रायपुर में हुए 20 करोड़ रुपए से ऊपर का कोई निर्माण कार्य गिना तो वे राजनीति छोड़ देंगे।

इधर मध्यप्रदेश का भी दम मुफ्त योजनाओं ने निकाल रखा है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुफ्त योजनाओं को रेवड़ी कल्चर निरूपित करके विरोधी दलों पर निशाना साधते हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं के पार्टीशासित राज्य मध्यप्रदेश में सिवाए मुफ्त योजनाओं के धरातल पर गिनाने लायक कोई विकास कार्य नजर नहीं आता। मध्यप्रदेश राजनीतिक दलों के बीच मुफ्त योजनाओं को लेकर चल रही अंधी होड़ में फंस चुका है जिसकी बानगी लाडली बहना योजना में नजर आती है। शिवराज सरकार ने महिलाओं को 1 हजार रुपए देना शुरू किया तो कांग्रेस ने उसकी सरकार आने पर 1500 रुपए देने का वादा कर दिया है। कांग्रेस की ओर से बोली बढ़ाए जाने पर अब मुख्यमंत्री शिवराज ने इसे आने वाले दिनों में 3000 रुपए कर देने का वादा कर दिया है। इस समय मध्यप्रदेश में लाडली बहना योजना के तहत 1.25 करोड़ बहनों को 1000 रुपए महीने दिए जाने पर सालाना लगभग 15,000 करोड रुपए से ज्यादा का आर्थिक बोझ पड़ रहा है। अब अगर इसे बढ़ाकर तीन गुना कर दिया जाएगा तो खर्च की राशि भी बढ़कर 45,000 करोड़ रुपए से ज्यादा हो जाएगी। ये हाल उस प्रदेश का है जिस पर नए वित्तीय वर्ष के अनुमान के मुताबिक, इस साल 3.85 लाख करोड़ रुपये का कर्ज हो जाएगा।

दरअसल जब राजनीति की दृष्टि दीर्घकालिक ना होकर तात्कालिक लाभ वाली होती है तो उसका श्री’लंका’ लगना तय है। कभी हैपी इंडेक्स में आगे रहने वाले श्रीलंका की तरह ही वेनेजुएला की बर्बादी की भी यही कहानी है। दरअसल जब सत्ताएं सब्सिडी और मुफ्तखोरी के बीच भेद मिटाकर इन्हें एक मानने की भूल करती हैं तो अंजाम आर्थिक बदहाली ही होता है। (Growing tradition of freebies in the india) यही वजह है फ्री कल्चर पर लगाम लगाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने फ्रीबीज को परिभाषित करने की जरूरत बताई है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने मामला बड़ी बैंच को सौंप दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि फ्रीबीज के दायरे का निर्धारण होने के अलावा राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की भी जवाबदेही सुनिश्चित होने के बाद इस पर लगाम लग सकेगी।

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