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#NindakNiyre: क्या सच में बदल जाएंगे मोहन मरकाम, क्या इतना आसान है केंद्रीय नेतृत्व को यह समझाना, आइए जानते हैं परत दर परत

क्या सच में बदल जाएंगे मोहन मरकाम, क्या इतना आसान है केंद्रीय नेतृत्व को यह समझाना! CG PCC Chief changing issue

Edited By :  
Modified Date: March 14, 2023 / 12:50 PM IST
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Published Date: March 14, 2023 11:30 am IST

बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक

CG PCC Chief changing issue यह चर्चा आनायास नहीं है कि पार्टी अपने संगठन का प्रदेश मुखिया बदल सकती है। सरकार की केंद्रीय धुरी मुख्यमंत्री हैं, तो संगठन की धुरी मोहन मरकाम। ये दोनों राज्य में कांग्रेस को शक्तिशाली बनाते हैं। लेकिन गाहेबगाहे असहमतियां उभरती हैं। इन असहमतियों में कभी कोई भारी पड़ता है कभी कोई। इसका परिणाम है, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष से मिलने के बाद बघेल ने संगठन में बदलाव की चर्चा छेड़ दी है। जब यह चर्चा शुरू हो गई है तो यह जानना जरूरी है कि अगर मोहन मरकाम को बदला जाता है तो छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान किसके हाथ में आएगी, क्या इसके मापदंड होंगे।

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2018 की स्थिति बनेगी 2023 में प्रदर्शन का बेस

CG PCC Chief changing issue कांग्रेस ने 2018 में सभी क्षेत्रों में अच्छी सीटें जीती थी। पार्टी ने सरगुजा संभाग की सभी 14 सीटें, बिलासपुर संभाग की 24 में से 14, रायपुर संभाग की 20 में से 14, दुर्ग की 20 में से 17 और बस्तर की 12 में से 11 जीती थी। बाद के उपचुनाव और जोड़ लें तो कांग्रेस 2023 तक आते-आते 71 पर पहुंच गई। यानि बिलासपुर में उसकी 14 से बढ़कर 15 हो गईं। बस्तर में 11 से बढ़कर 12 और दुर्ग संभाग में 17 से बढ़कर 18 हो गईं। जाहिर है कांग्रेस अब जो भी रणनीति 2023 के लिए बनाएगी उसमें 2018 उसका बेस प्रदर्शन माना जाएगा। इस समय पार्टी को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में भूपेश बघेल लीड कर रहे थे।

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जात-बिरादरी का रखना होगा ख्याल

कांग्रेस बस्तर और सरगुजा में सबकी सब सीटों पर काबिज है। यहीं सबसे ज्यादा आदिवासी रिजर्व सीटें आती हैं। अभी राज्य की 29 एसटी सीटों में से 27 पर कांग्रेस है। 2 आदिवासी समुदाय के ऐसे विधायक भी कांग्रेस के खाते में हैं जो सामान्य सीट से जीते हैं। ऐसे में पार्टी आदिवासी समुदाय को नाराज नहीं कर सकती। वह संगठन का मुखिया इसी समुदाय से बनाए रखना चाहेगी। वर्तमान में मुख्यमंत्री ओबीसी समाज से आते हैं, प्रदेश अध्यक्ष एसटी से। कांग्रेस में अभी एससी समाज का प्रतिनिधित्व दो मंत्रियों के रूप में है। तो कॉम्बिनेश यही बना रह सकता है।

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पार्टी क्यों बदलना चाहेगी मरकाम को

वैसे तो खरगे के राजनीतिक कौशल में यह बात शुरू से है कि वे राज्यों में पावर बैलेंस बनाने पर यकीन रखते हैं। यह बात गांधी परिवार को भी मुफीद लगती है। वैसे भी राजनीतिक सिद्धांत कहता है पावर को एक जगह केंद्रित नहीं होना चाहिए। इसलिए पार्टी राज्य में अगर अपना पीसीसी बदलती भी है तो एक खिंचाव वाला पोल बनाए रखेगी। जिनके नाम हाल ही में मीडिया रिपोर्ट्स में आए हैं, वे पावर सेंट्रलाइजेशन रोक पाएंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता, लेकिन वर्तमान पीसीसी यह काम कर रहे हैं।

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नाम जो हो सकते हैं पार्टी के मुखिया के लिए

कांग्रेस को ऐसे नेता खोजने होंगे जो सभी ध्रुवों को संभाल सकें और राजनीतिक अपेक्षाएं पूरी कर सकें। सरगुजा से खेलसाय सिंह और रामपुकार सिंह वरिष्ठ हैं, लेकिन उम्र अधिक है। एक नाम किसी वक्त में जोगी के सबसे करीब रहे अमरजीत भगत का भी हो सकता है। वे सरकार में मंत्री हैं। भगत को लेकर भी चर्चा है, लेकिन सरगुजा से बनाने से बस्तर नाराज होगा, जबकि सरगुजा में बस्तर के पीसीसी को लेकर कोई ऐसी नाराजगी फिलहाल नहीं है तो आगे भी नहीं रहेगी। बिलासपुर संभाग में कांग्रेस के पास आदिवासी चेहरों में चक्रधर सिदार, लालजीत राठिया वरिष्ठ हैं, बाकी सभी आदिवासी विधायक जूनियर हैं। इनमें चक्रधर सिदार वयोवृद्ध हैं। चुनाव के लिहाज से बहुत दौड़भाग की जरूरत होगी। रायपुर संभाग में 2 ही एसटी सीटें हैं, जिनमें से एक पर ही कांग्रेस है, जिस पर डॉ. लक्ष्मी ध्रुव हैं। दुर्ग संभाग में 2 ही आदिवासी सीटें हैं, इनमें से एक अनिला भेंडिया सरकार में मंत्री हैं दूसरी सीट मोहलामानपुर है। लेकिन कांग्रेस मानपुर को जिला बनाकर पहले ही अपने साथ कर चुकी है। इसलिए यहां से इंद्राशाह मंडावी को पीसीसी बनाने से कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा। अब बस्तर में देखें तो राज्य की 4 आदिवासी लोकसभा सीटों में से इकलौती कांग्रेस के पास है, जिससे दीपक बैज सांसद हैं। युवा हैं और सकारात्मक राजनीति को तवज्जो देते हैं। इनका मुख्यमंत्री से अच्छा तालमेल है। बस्तर कांग्रेस के लिए अहम है। कवासी लखमा जैसे धुरंधर यहीं से आते हैं, लेकिन उनकी छवि मजाकिया है। संगठन में कड़े अनुशासन वाले व्यक्ति की जरूरत होती है। बस्तर में कांग्रेस के पास अधिक विकल्प नहीं। गैरचुनावी नेताओं पर भी पार्टी दांव लगा सकती है, लेकिन ऐसे चेहरों में प्रदेश स्तर की कार्यकर्ताओं में वैसी अपील नजर नहीं आती।

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रिस्क से इश्क हो तो ही बदलिए

यह साल चुनाव का है। मरकाम ने बघेल के बाद पार्टी को ठीक से इग्नाइट किए रखा है। ऐसा कोई ईगो वॉर सतह पर नहीं आया, जो पार्टी में बिखराव का संदेश देता हो। यानि मरकाम निर्विवाद तो रहे ही हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि वे किसी नेता की बी-टीम या पपेट बनकर चलते हों। सिर्फ यही उनके बदले जाने की वजह है तो कहना होगा केंद्रीय नेतृत्व चुनावों का कच्चा खिलाड़ी है। दूसरी बात पावर बैलेंस पार्टी के लिए लंबे समय के हिसाब से अच्छा है। संभवतः पार्टी के अनेक ऐसे वरिष्ठ हैं जो चुनावी राजनीति में अधिक सफल भले नहीं हैं, लेकिन संगठन की सियासत बखूबी कर लेते हैं। वे भी चाहेंगे के पावर बैलेंस बना रहे।

 

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