भारत के सामाजिक तानेबाने को न्यायसंगत बनाने में अहम किरदार आरक्षण ने निभाया है। यह बात मैं एक घोषणा के रूप में कहना चाहता हूं। लुकबैक करेंगे तो हम अपने-अपने जीवन के बचपनों में जाकर देख, समझ और जान सकते हैं। एक गांव, एक कस्बा, एक बड़ा शहर या किसी भी किस्म की बसाहट में ऊंचा और नीचा समाज का मान्य व स्वीकार्य स्ट्रक्चर दिखाई देगा। इस स्ट्रक्चर में यूं तो कोई समस्या न होती, अगर यह सिर्फ ऊंच-नीच होता। कालांतर में यह बन गया शोषक और शोषित का समूह। यह सब अनजाने हुआ या जानकर, कहना किसी आरोप के समान होगा, किंतु यथार्थ का धरातल साफ बताता है, इसमें कुछ मंशाएं तो जरूर शामिल रही हैं। इसके अलावा राजनीतिक भाषा और संविधान की टर्म्स में अन्य पिछड़ा वर्ग के उदय का भी यही सब तानाबाना बड़ा कारक है। कह सकते हैं यह तबकी सियासी महत्वाकांक्षाओं से उभरा है, किंतु क्या इससे इनकार कर सकते हैं कि समाज में कुछ वर्ग वास्तव में समान नहीं थे। एक इंजीनीयर होकर भी विश्वकर्मा ठाकुरों का सेवक ही कहाता था। आपके कपड़े बुनने वाले बुनकर कुशल कारीगर होकर भी ब्राह्मणों के चरणों के दास ही कहाते था। ईंट-गारा चुनकर आपके घर को शानदार लुक देने वाला कारीगर, मिस्त्री तब भी बनियों के साथ भोजन नहीं कर सकता था। आपके लिए मलमल जैसे महंगे कपड़ों से कुर्ते सिलने वाला दर्जी कायस्थों से निम्न ही कहाता था। यह सब अचरज क्या हमारे समाज के ऐसे अंश नहीं थे जिन्हें सहा गया। ऐसे में अगर किसी ने समानता की टेबल पर चर्चा शुरू की है तो उसमें आरक्षण का योगदान सबसे बड़ा है। यद्यपि बाकी फैक्टर्स भी हैं।
इन दिनों निजी क्षेत्र में आरक्षण को लेकर भारत में चर्चा है। बेशक इसके पीछे वोटबैंक आरक्षित करने की मंशा ज्यादा है बजाए किसी समाज के कल्याण की कोशिश के। एक समान मताधिकार वाली इस व्यवस्था में वोटबैंक तैयार करना किसी भी राजनीतिक दल की मजबूरी होना लाजिमी है। फिलहाल इसके एप्रिसिएशन या क्रिटिसिज्म पर नहीं जाते। हम बात सीधी और सरल करते हैं। सरकारी क्षेत्रों में निरंतर नौकरों की संख्या घट रही है। अब निजी क्षेत्र में नौकरों की मांग है। ऐसे में कोई भी व्यवस्था सिर्फ सरकारी क्षेत्रों के बूते आरक्षी वर्ग को नौकरियों पर नहीं रख सकती। स्वाभाविक है उसे निजी क्षेत्र के विस्तार में घुसना ही होगा। इसमें देर हो सकती है, किंतु सदा के लिए टल नहीं सकता। ऐसे में समय सिर्फ इस बात में नष्ट नहीं होना चाहिए कि निजी क्षेत्रों में आरक्षण नहीं लाना चाहिए, बल्कि इसके मॉड्यूल पर चर्चा आरंभ कर देनी चाहिए।
अब सवाल यह है कि निजी क्षेत्रों की उत्पादकता पर विपरीत असर पड़ेगा क्या? यह सवाल वैसा ही है जैसे पूर्व काल में मौजूदा आरक्षण लागू करने के पहले उठाए गए थे। नतीजा ये हुआ कि आरक्षण जो और ज्यादा सामाजिक कल्याण कर सकता था वह करने से वंचित हो गया। यह सियासी टूल बनकर रह गया। अगर हम मान लें कि अब बारिश होगी ही तो हमारे पास तैयारी के लिए पर्याप्त समय होता है और हम यह भी मान लें कि बारिश होना अच्छी बात है तो हमारा सारा दुख भाग जाता है और अंत में बारिश होना सच में ही अच्छी बात होती ही है। यह विषय निजी क्षेत्र में आरक्षण पर भी लागू होता है। निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है।
अब बात मौजूदा सरकारी क्षेत्र में आरक्षण व्यवस्था की। इसमें भी अब कुछ बदलाव जरूरी हैं। इन्हें बिंदुवार समझना चाहिए।
मूल बात यह है कि आरक्षण निजी क्षेत्र में जरूर लागू हो और इसका सर्वग्राह्य और उपयोगी मॉडल भी बने। इसी तरह मौजूदा आरक्षण में भी सर्वग्राह्य व समसामयिक डायनेमिक्स को एकॉमोडेट किया जा सके।
बतंगड़ः हम दो, हमारे कितने….?
2 weeks ago