Barun Sakhajee,
Asso. Executive Editor
बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक
वोट के बहाने नए विषयों पर चर्चा हो तो इसे कोरा वोट बैंक नहीं मान सकते। कोरा वोट बैंक वह है जब हम नए विषयों को छूएं नहीं और संबंधित वोट बैंक की दकियानूसियत को बरकरार रखें। जैसे कि अब तक होती रही इफ्तार पार्टियां और इशरत जहां जैसे घटनाक्रम पर राजनीतिक सक्रियता। 1 नवंबर को राजस्थान के मानगढ़ में भारत के प्रधानमंत्री और राजस्थान के मुख्यमंत्री एक कार्यक्रम में शामिल होंगे। मानगढ़ वह इलाका है जिसकी राजनीतिक भूमि अलग किस्म से मजबूत है तो वहीं यह वर्ष 1913 के वीभत्स आदिवासी नरसंहार का भी गवाह है। इसमें हजारों की संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम किया गया था। मोदी यहां से इन्हीं की याद में अपनी आदिवासी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे। दरअसल मोदी की भाजपा ऐसे विषयों को छू रही है जिससे वोट बैंक तो सधता ही है साथ में नए विषयों पर भी विमर्श शुरू होता है। भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रमों में इंदिरा की वानरसेना का पाठ तो हमने पढ़ा लेकिन बिरसा मुंडा के बारे में नहीं। किसी भारतीय राजनेता की वसीयत, जिसमें कहा गया था कि मेरी मृत देह की राख को भारत की सरजमीं पर छिड़क देना को खूब पढ़ा लेकिन मानगढ़ के इन मासूम आदिवासियों के नरसंहार को नहीं पढ़ सके।
यह विडंबना इरादतन थी या संयोगवश, इस पर चर्चा अलग से। फिलहाल बात इस पर करते हैं। मानगढ़ का यह नरसंहार आखिर क्यों सियासत में चर्चा का विषय नहीं बना, समझना मुश्किल है। भारत का आदिवासी समुदाय समावेशी समाज के रूप में जाना जाता रहा है।
मानगढ़ के राजनीतिक भूगोल को देखें तो समझ आएगा, यह राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के त्रिकोण को प्रभावित करता है। अपनी भौगोलिक संरचना के चलते इसका असर पश्चिमी मध्यप्रदेश यानी मालवा की अनेक विधानसभा सीटों पर है तो वहीं उत्तर-पूर्वी गुजरात पर इसका खासा प्रभाव है। राजस्थान के पश्चिम-दक्षिण में की कई सीटों पर इसका सीधा प्रभाव है। आदिवासियों की आवाज को सुनने का नाटक तो हुआ, लेकिन वास्तव में सुना नहीं। इस बहाने अगर समाज को मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता हो और उनसे तादात्म बनाया जा सकता हो तो बुरा कुछ नहीं।