बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
अक्सर खबरें आती हैं, प्रशासन ने मंडप में जाकर बाल विवाह रुकवाया। बेशक मेडिकली बाल विवाह ठीक नहीं हैं। इसके लिए कड़ा कानून भी है। कच्चे मन और कच्चे तन के साथ ग्रहस्थी नहीं बसाना चाहिए। इससे ग्रहस्थी कच्ची रह जाएगी, क्योंकि ग्रहस्थी संसार की आत्मा है। इसका कमजोर होना संसार का कमजोर होना है। इससे कोई इनकार नहीं।
अच्छा खासा विवाह चल रहा है। मंडप सजा है। व्यवस्थाएं बनाई गई हैं। मेहमान आए हैं। प्रतिष्ठित लोगों के बीच सम्मान का आदान-प्रदान किया जा रहा है। एक कच्चे मन की बिटिया मंडप में दुल्हन बनकर बैठी है। एक कच्चे मन का दूल्हा मंडप में बैठा है। विवाह की प्रक्रिया संपन्न करवाई जा रही है। तभी प्रशासन की टीम पहुंचती है। दूल्हा-दुल्हन अपराधी से महसूस करने लगते हैं। सारा कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो जाता है। मेहमानों में विवाह वाले परिवार के प्रति निम्नता का भाव आने लगता है। पिता मन मसोसकर रह जाता है। मां के आंसू झर पड़ते हैं। कच्चे मन की दुल्हन बनी बिटिया घबरा जाती है। उसे नहीं मालूम उसका दोष क्या है। प्रशासन का अमला पहुंचता है दूल्हा, दुल्हन और उनके सभी परिजनों को कानूनी धाराएं गिनवाने लगता है। बताने लगता है कितना बड़ा अपराध आपने कर डाला। ज्यों कोई चोरी कर डाली, डाका डाल दिया, किसी को लूट लिया, किसी की हत्या कर दी, किसी की जड़-जमीन हड़प ली, किसी को सता दिया या किसी को खत्म कर दिया। जाने क्या कर दिया। उन्हें न पहले कानून पता था न जब बताया गया तब पता चला। बस अपराधियों से खड़ा कर दिया लाइन में सबको। यह अपमानजनक स्थिति बनती है। प्रशासन के अफसर इसे अपनी उपलब्धि बताते हैं। कोर्ट भारी भरकम पहरुआ बनकर सबको बेइज्जत करता है। गजब का निजाम है। गजब की कार्रवाई है।
अब सवाल ये है कि क्या बालविवाह को रोका ही न जाए। अगर रोकने से रोका गया तब तो बालविवाह रुकेंगे ही नहीं। बेशक, यही लगेगा, किंतु सिक्के को उलटकर देखिए। हम बालविवाह को लेकर जागरूकता कितनी फैलाते हैं। गांव या शहर के स्थानीय प्रतिनिधियों को कितना जिम्मेदार बनाते हैं। गांव की कोटवारी को कितना कितना जवाबदेह बनाते हैं। हम स्कूल शिक्षकों को क्यों इस काम में नहीं लगाते। हम सामाजिक रूप से बने संगठनों को क्यों इसमें नहीं झौंकते। हम प्रचार, प्रसार में क्यों कमी करते हैं। स्थानीय सरपंच, सचिव, निकाय के मुखिया, सामाजिक पदाधिकारी, टेंट देने वाले, गार्डन देने वाले, हलवाई, पंडित सबको जागरूक क्यों नहीं किया जा रहा। क्यों नहीं इन्हें भी जिम्मेदार बनाया जा रहा।
यूं किसी परिवार में जाकर उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल कर डालना कौन सा प्रशासन है? सबसे बड़ी बात उस बालमन पर क्या प्रभाव पड़ता है, कभी कल्पना भी की है। वह तो स्वयं को सदा-सदा के लिए तोड़ डालता है। इस सामाजिक पहलू की उपेक्षा करके कोई व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती। यद्यपि मैं स्वयं इस कानून की खिलाफत नहीं करता, न ही कार्रवाई की, किंतु इन सामाजिक स्थितियों को भी तो देखा जाना चाहिए।
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