बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
महाराष्ट्र में भाजपा सियासी किंग है। सबसे ज्यादा सीटें। सबसे ज्यादा वोट शेयर। सबसे ज्यादा क्षेत्रीय स्तर पर प्रदर्शन। सबकुछ अच्छा होकर भी आखिर क्यों नहीं हो पा रहा मुख्यमंत्री का फैसला? दरअसल फैसला तो हो चुका होगा, सिर्फ जनमानस में आया नहीं। भाजपा को यहां दो नजरियों से सोचना और समझना चाहिए। पहला नजरिया दूरदृष्टि वाला है और दूसरा नजरिया फिलहाल वाला। कोविंद समिति की अनुशंषाएं मानी जाती हैं तो आने वाले दिनों में चुनाव का फॉर्मेट पूरी तरह से बदल जाएगा। ऐसे में एक तथ्य यह भी भाजपा के सीएम को लेकर फैसले का एक आधार होना चाहिए।
शिवसेना शिंदे ने वर्तमान में 12.38 वोट परसेंट यानि लगभग 80 लाख वोट के साथ 57 सीटें हासिल की हैं। यह शिवसेना का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। इससे अधिक सीटें वह कभी नहीं जीत पाई। यह तब है जब शिंदे मुख्यमंत्री थे, जब भाजपा की पूरी बैकिंग थी, जब सीट शेयरिंग में भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी शिवसेना के साथ 2019 की तरह बेमन से नहीं बल्कि मन से चुनाव लड़ा और जिताया। यह तब है जब केंद्र की पूरी टीम ने शिंदे को आंतरिक रूप से हराने की बजाए बढ़ाया। और सबसे बड़ी बात यह तब जब सेना का पारंपरिक व स्थापित चुनाव चिन्ह हाथ में था। मतलब तमाम सपोर्ट्स के बाद।
शिवसेना उद्धव ने इन चुनाव में 9.96 परसेंट यानि 64 लाख 33 हजार वोट हासिल किए हैं। यह तब हैं जब उद्धव स्वयं बहुत कम दूरी तक राजनीति को समझते हैं, जब शरद पवार जैसे घाघ नेता साथ में हैं, जब संजय राउत जैसे अपरिपक्व सलाहकार और आदित्य ठाकरे जैसे नौसिखुआ फ्रंट पर हैं। और तब जबकि चुनाव चिन्ह बिल्कुल नया है।
एनसीपी अजीत पवार सीटें भले ही ज्यादा लेकर आई, लेकिन वोट परसेंट में काका शरद को मात नहीं दे पाए। कांग्रेस अपने वोट बैंक को भी नहीं बचाकर रख पाई। भाजपा ने अद्भुत प्रदर्शन किया है। 132 सीटें, 27 परसेंट वोट। स्वाभाविक भाजपा दावेदार हुई।
अब जरा सोचिए। अगर शिवसेना शिंदे और शिवसेना उद्धव दोनों के वोट को देखें तो शिवसेना के पास अब तक के सबसे ज्यादा वोट और सबसे ज्यादा सीटें और सबसे ज्यादा वोट परसेंट हैं। यानि दोनों को मिलाकर 1 करोड़ 44 लाख से ज्यादा वोट, 77 सीटें, 22.34 परसेंट वोट महाराष्ट्र में कम नहीं हैं। दोनों पहले भी जुड़े थे फिर जुड़ जाएं तो क्या फर्क पड़ना है। दोनों का नेचर एक रहा है फिर एक हो जाए तो क्या फर्क है।
भाजपा यह बात बहुत अच्छे से जानती है कि यह हो सकता है। अपना मुख्यमंत्री बनाने की जिद से भाजपा सरकार तो बना लेगी, लेकिन आगामी चुनावों में अपने प्रदर्शन को दोहरा पाए मुमकिन नहीं। लोकसभा में प्रदर्शन दोहरा पाए कहना कठिन होगा। ऐसे में भाजपा अगर दूर के नजरिए से देखेगी, समझेगी, सोचेगी और करेगी तो शिंदे को रिपीट करेगी।
शिंदे को अगर भाजपा रिपीट करती है तो यह मान लेना चाहिए कि उद्धव की शिवसेना अगले 5 सालों में धरती में मिल जाएगी। शिंदे ही शिवेसना होंगे। मोदी और भाजपा केंद्र में बने रहते हैं तो शिंदे को अपने हाथ में रखना उतना कठिन नहीं है जितना कि उद्धव को छूना भी, हाथ में रखना तो भूल ही जाइए। इसलिए शिवसेना शिंदे अगर बड़ी बन भी जाती है तो भाजपा को उतना नुकसान नहीं है।
मेरे हिसाब से भाजपा मुख्यमंत्री अपना बनाना ही नहीं चाहती। वह तो सिर्फ शिंदे को थका रही है। शिंदे के महत्वाकांक्षी नेताओं को थका रही है। उनकी महत्वाकांक्षाओं को सुला रही है। उन्हें मंत्रिमंडल में अपनी शर्तो पर निगोशिएशन पर ला रही है। मुख्यमंत्री का पद देना तो शिंदे को ही चाहती है, लेकिन इसके पहले पूरी तरह से थकाकर, समझाकर, जताकर। यह कोई ग्रांट में मिला पद नहीं। यह भाजपा का उनपर आजीवन अहसान के रूप में मिलेगा। इस सबके पीछे भाजपा के साथ खुद शिंदे शामिल हों तो कोई बड़ी बात नहीं।
महाराष्ट्र में भाजपा पिछले 20 सालों के चुनाव का विश्लेषण करती है तो वह देख रही है, उसके लिए कांग्रेस कोई चुनौती नहीं है। शरद थोड़ी चुनौती हैं, वो भी सुप्रिया सुले या अजीत पवार के रूप में नहीं हैं। लेकिन शिवसेना उसक लिए बड़ी चुनौती है। दोनों ही दल राष्ट्रवादी दल हैं। ऐसे में 2024 के चुनावों के मुताबिक दोनों शिवसेनाओं और भाजपा के वोट परसेंट को जोड़ें तो यह 49 परसेंट, सीटों की भाषा में 209 और वोट के रूप में 3 करोड़ 25 लाख पर पहुंचते हैं। यानी महाराष्ट्र भाजपा अपने कोर राष्ट्रवादी वोटरों के जरिए हर सूरत में लोकसभा में सभी 48 और विधानसभा में 200 के पार सीटें कभी भी जीत सकती है। शिवसेना को नेस्तनाबूत करने के लिए भाजपा के पास शिंदे को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने का यह दूसरा अवसर आया है। भाजपा करेगी भी यही, लेकिन थकाकर। अधिकतर प्रमुख मंत्रालय अपने पास रखेगी। दो या तीन उपमुख्यमंत्री बनाकर हाउस पर क्लच रखेगी। अफसरों को अपनी ओर लेकर शिंदे को मुहर बनाकर इस्तेमाल करते हुए काम करेगी। यह रणनीति है भाजपा की।