बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
नैया से पार करवाने वाला रामभक्त केवट आज बड़ा परेशान है। बारंबार कह रहा है, मुझे चरणों की रज चहिए, न लूंगा नाथ उतराई। जबकि नाथ ने पहले ही तय कर लिया था कि उतराई-मुतराई देना ही किसे है? बल्कि नाथ तो इस मूड में थे कि इस भक्ति को भी भक्ति का दर्जा नहीं देना, न मुस्कुराना। क्योंकि नाथ सवा सौ साल से यह उतराई वाली चतुराई की कविता, गीत, धुन, संगीत, आलाप सुनते आए थे। वह जानते थे इन स्तुतियों के पीछे का सच क्या है? वे जानते थे यहां न तो असली नाथ हैं न उतराई मांगने वाले भक्त ही असली हैं। सब ऐसे सत्य हैं जैसे आम में फले आम और बेर में फले बेर। सब जानते हैं आखिर आम के पेड़ में आम ही तो फलेंगे?
नाथ के परनाना के पिताजी से अब तक की सल्तनत चली आ रही है। या यूं कहिए कि मानव सभ्यता में इस रेशे-रिश्ते के लिए कोई संबोधन ही नहीं है। वैसे पितृ ट्रैक को वंश कहते आए हैं, लेकिन यह मातृ ट्रैक है तो इसके लिए इस पुरुषत्व से दमित समाज ने शब्द ही नहीं बनाया। इसीलिए तो अतिफेमिनिस्ट बुक्का फाड़कर रोते रहते हैं।
खैर, जब तय हो गया कि नाथ उतराई नहीं देंगे और भक्ति गीत का भी कोई ऐसा सीधा-सीधा कुछ न दिया तो एक ही रास्ता ठीक रहेगा। पुष्प-पथ कंटक-पथ बने इससे पहले ही इसका पुष्पोत्पाद बना लिया जाए। यूं तो राजकाज में यह सब चलता है। कोई सिंहासन पर चरण पादुका रखकर राज चला सकता है तो कदमों में सुर्ख खुशबुएं बिखेरकर क्यों नहीं? फिर भी तसल्ली यह रहेगी भक्तावलंबियों को कि चलो हंसे नहीं नाथ तो गुस्साए भी तो नहीं, यह क्या कोई कम बड़ी बात है।
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