राजनीति के सबकी अपनी-अपनी प्रयोगशालाएं हैं। भाजपा की प्रयोगशालाओं में आधुनिक विषयों और चर्चा की सियासत पर काम हो रहा है, तो कांग्रेस की प्रयोगशाला में भाजपा के प्रयोगों के काट पर शोध चल रहा है। आम आदमी पार्टी की प्रयोगशाला में पीड़ित बनकर सत्ता का फॉर्मूला खोजा जा रहा है। इनके अलावा बाकी तमाम दलों में भी किसी तरह से बीपी-चंद्रशेखर, देवगौड़ा-गुजराल हालात पर शोध चल रहा है। ऐसे में राम भी बंट गए, हनुमान भी और राम परिवार के दूसरे सदस्य भी। छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने राम की माता को राजनीति का केंद्र बनाने की कोशिश की है, तो वहीं कमलनाथ माता सीता को लेकर आए हैं। आइए क्या बता रहे हैं हमारे साथी रिपोर्टर नवीन सिंह।
छत्तीसगढ़ की सरकार ने रायपुर से चंद किलोमीटर दूर चंदखुरी में माता कौशल्या के प्राचीन मंदिर को पुनर्रुद्धार करवाया है। असर ये हुआ कि राम का छत्तीसगढ़ से सीधा नाता जुड़ गया। राम छत्तीसगढ़ी में कहें तो हमारे भांचा हो गए। इतना ही नहीं राम वनगमन पथ भी बन रहा है। राजनीति की भाषा में कहें तो यह पथ छत्तीसगढ़ की 90 विधानसभा सीटों से होकर गुजर रहा है। इसमें 75 स्थल विकसित किए जा रहे हैं, जबकि 9 बड़े धर्म स्थल बनाए जाएंगे। इस लिहाज से देखें तो यह फॉर्मूला राजनीति में चल निकला है। तो कमलनाथ क्यों पीछे रहें। वे भी माता सीता को लेकर आ गए। लेकिन वे मध्यप्रदेश में नहीं लाए, बल्कि श्रीलंका में अशोक वाटिका में लेकर आए। भाजपा पर आरोप लगाया कि सीता का मंदिर नहीं बनने दे रहे। कमलनाथ ने अपनी सरकार में श्रीलंका में वह स्थल चिन्हित किया था जहां माता सीता रही हैं। यहां 5 करोड़ की लागत से मंदिर निर्माण की पहल भी की थी। तो राजनीति में कांग्रेस ने राम के परिवार के सदस्यों को चुनना शुरू किया है। हालांकि कांग्रेस ने इससे पहले शिव को अपना बनाना का ट्रायल भी किया था। अब बात आम आदमी पार्टी की। ये धर्म के जलते अंगारे नहीं छूते, इनकी प्रयोगशाला में खुद को पीड़ित, वंचित बताकर सहानुभूति की सियासत का फॉर्मूला ईजाद किया गया है। बाकी दलों ने आपसी मेल-मिलाप के साथ क्षेत्रीय अस्मिता की सियासत का फॉर्मूला बनाया है। इसमें भी कहीं-कहीं धर्म का रंग लगता रहता है। जैसे केसीआर का तिरुपति जाना आदि-आदि। इनके अलावा ब्रहाम्णों की राजनीति में परशुराम, आदिवासियों की राजनीति में बिरसा मुंडा समेत अन्य सामुदायिक महापुरुष, एससी की सियासत में अंबेडकर का इस्तेमाल तो होता ही है।
अगर राजनीति में भगवान और महापुरुष ऐसे ही बंटते रहे तो बहुत दूर नहीं जब हम लव-कुश, भरत, शत्रघ्न, लक्ष्मण को भी इस्तेमाल होता देखें। चुनावी राजनीति में चूंकि फॉर्मूले चल निकलते हैं। ऐसे में अगर कोई राम, सीता, कौशल्या या लव-कुश, लक्ष्मण के नाम से वोट मांगे तो कोई कुसूर नहीं। देखेंगे 2024 के चुनाव में राम पर कौन-कौन दावेदारी करता है और किसकी कितनी ज्यादा मानी जाती है।
यूट्यूब पर देखिए पूरी कहानी…
https://www.youtube.com/watch?v=zEPb83wKWko&t=3s
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