Open Window Special: Maharashtra Crisis: वर्ष 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों का मूलभूत सार यही था कि शिवसेना या तो भाजपा की शीश पेंसिल बनी रहे, जो हर चुनाव में नोंक बनाने के नाम पर घटती जाए या फिर वह दूर जाकर अपना सियासी घरौंदा बसाए। उद्धव जैसे अराजनीतिक व्यक्तित्व ने दूसरा रास्ता चुना। दूसरा रास्ता भारी जोखिमों से भरा पड़ा था। कदम-कदम पर मुसीबतें और चुनौतियां थी। इनसे वास्तव में डील कर रहे थे महाराष्ट्र की राजनीति के चतुर सुजान शरद पवार, जबकि उद्धव को लगा वे इन्हें निपटा रहे हैं। बस संकट इसी में छिपा हुआ है।
आज जब संकट आया तो शरद पवार ने यह कहकर किनारा कर दिया कि यह शिवसेना का आंतरिक मामला है। इस वाक्य का सीधा अर्थ है कि शिवसेना को खुद से यह निपटाना होगा। गठबंधन स्तर पर शरद पवार अपनी सूझ-बूझ से भाजपा को छका सकते हैं, लेकिन अगर सहयोगी शिवसेना अपने ही लोगों को एकसूत्र में बांधकर नहीं रख पाएगी तो इसमें वे क्या करेंगे?
अब संकट ये है कि क्या उद्धव की सियासत खत्म हो गई? इसका जवाब साफ है, उद्धव राजनेता हैं ही नहीं। असल में 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा-शिवसेना में तकरार के स्क्रिप्ट राइटर थे संजय राउत। संजय राउत का अनुमान था, बाल ठाकरे की तरह ही उद्धव मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, क्योंकि बाल ठाकरे ने यह घोषणा करके ही शिवसेना को सींचा था। फिर उन्होंने ऐसा किया भी। लेकिन शरद पवार ने महा विकास अघाड़ी की पहली शर्त ही यह रख दी कि उद्धव ही मुख्यमंत्री बनेंगे तो हम साथ आएंगे। तब संजय राउत की स्क्रिप्ट पर पानी फिर गया। असल में संजय जानते थे और उन्हें भरोसा था कि उद्धव की एबसेंस में वे ही इस परिवार की पहली पसंद होंगे, क्योंकि एकनाथ शिंदे बाला साहब से ज्यादा जुड़े थे। दूसरे नंबर पर शिंडे का शिवसेना में रहने तक राज ठाकरे से अच्छा था।
फिलहाल की कोशिशों में यह लगता है कि महा विकास अघाड़ी के अस्तित्व पर तो संकट है ही साथ ही शिवसेना के अस्तित्व पर भी बड़ा संकट है। अब 4 रास्ते खुल रहे हैं। पहला शिंडे के नेतृत्व में असली शिवसेना का दावा चुनाव आयोग में किया जाए और अधिकतम विधायकों को देखते हुए सेना का चुनाव चिन्ह और शिवसेना शिंदे की हो जाए। दूसरा सेना के सभी विधायक सदन में भाजपा के मुख्यमंत्री को वोट करके विश्वास प्रस्ताव में मदद करें और सरकार बनवाएं। तीसरा चूंकि दो तिहाई से अधिक विधायक टूटे हैं तो ये सब मिलकर भाजपा में जाएं और पार्टी मर्जर हो जाए। तब इनकी वर्तमान विधायकी भी बची रहे और ये भाजपा के भी हो जाएं। चौथा रास्ता एनसीपी भाजपा को समर्थन का ऐलान करे और इन विधायकों को भी साथ रखकर नया गठबंधन बन जाए। इन चारों फॉर्मूलों में शिवसेना को बड़ा नुकसान है।
फिलहाल 2019 में वापस जाइए। शिवसेना 2014 में 65 सीटें जीतती है और लगभग 90 के पार भाजपा। दोनों मिलकर सरकार चलाते हैं। अब 2019 में गठबंधन होता है तो सेना को लड़ने की सीटें भी कम मिलती हैं और जीतती भी महज 56 है। जबकि 122 के लगभग भाजपा लड़ती है और जीत जाती है 107। इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा की विजय दर सेना से अधिक रही। यह साफ है सेना को 2024 के चुनाव में संभवतः लड़ने के लिए ही 50-60 सीटें ही मिल पाती। यानी भाजपा सेना को शीश पेंसिल की तरह घिसकर अपना भाग्य लिख रही है। अब जब ये हालात आ गए हैं तब भी शिवसेना के साथ यही होगा। उद्धव की सबसे बड़ी गलती एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाना रही। भाजपा घिसते हुए भी महाराष्ट्र में रहती तब भी भाजपा को इसे खाने में वर्षों लगते, लेकिन गठबंधन ने महज ढाई वर्षों में खत्म कर डाला। शरद पवार राजनीति के जादूगर हैं। वे सेना को जब-तब यह बताते रहे हैं कि गठबंधन करना अलग बात है और बनाए रखना अलग। सुपर सीएम की तरह काम करते पवार भी चाहते हैं कि सेना विघटित हो। चूंकि इसका सीधा फायदा राष्ट्रवादियों को ही मिलेगा। सेना और भाजपा मिलकर महाराष्ट्र की लगभग 150 सीटें आसानी से जीतती हैं और करीब 43 फीसद वोट पर कब्जा जमा लेती हैं। ऐसे में एनसीपी इन दोनों के सामने बहुत बौनी है। शरद पवार चाहते हैं कि लोगों के पास हिंदुत्व के नाम पर एक ही विकल्प रहे, ताकि भाजपा से नाराज वोटर एनसीपी के पास आ जाए। एनसीपी कांग्रेस को अपने कांख में दबाए शस्त्र की तरह इस्तेमाल करना चाहती है। अचंभे की बात ये है कि सत्ता केंद्रित सियासी दल होने के नाते कांग्रेस को इस इस्तेमाल पर कोई ऐताराज भी नहीं।
अंत में निष्कर्ष यह साफ है, अब तेरा क्या होगा शिवसेना?