अल्लामा इकबाल ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के चारित्रिक दोष को रेखांकित करते हुए एक शेर कहा था – “जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें, बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।” इन बंदों को नए सिरे से गिनने का दौर शुरू हो गया है। खास बात ये है कि इस बार बंदों की शिनाख्त महिला-पुरुष वोटर के तौर पर नहीं नहीं बल्कि जाति के तौर पर होने जा रही है। इसकी शुरुआत हुई है जातिगत राजनीति के लिए बदनाम बिहार से। कैसी विडंबना है कि जो बिहार कभी देश को राजनीतिक, धार्मिक, अध्यात्मिक चेतना की राह दिखाता था आज देश को जाति के जंजाल में उलझाने की प्रयोगशाला बन कर सामने आया है। बिहार ने जब राह दिखा ही दी है तो भाजपा विरोधी दलों द्वारा शासित दूसरे प्रदेशों में भी जल्द ही वोटरों से पूछा जाएगा कि- “कौन जात हो”? क्या कीजिएगा आखिर सत्ता हथियाने का सवाल जो ठहरा। जाति के नाम पर देश बंटे तो बंटे, उनकी बला से। वोट के लिए कुछ भी करेगा।
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देश आज फिर 90 के दशक वाले दावानल दौर में जाता दिख रहा है। राम मंदिर आंदोलन से भाजपा के पक्ष में बन रहे माहौल को निष्प्रभावी बनाने के लिए 7 अगस्त 1990 को वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान किया था। इस सिफारिश के खिलाफ तब सैकड़ों युवाओं ने खुद को आग के हवाले कर बलिदान दिया था। हालांकि ये आरक्षण लागू करने से पहले ही वीपी सिंह सरकार गिर गई थी। सत्ता के विरोधाभासी चरित्र को उजागर करने वाली बात खास बात ये थी कि जो कांग्रेस मंडल कमीशन एक्ट को लागू करने का विरोध कर रही थी उसी कांग्रेस को 1991 में सत्ता हासिल करने के बाद अपनी सियासी मजबूरियों के चलते ओबीसी वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण को लागू करना पड़ा।
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मंडल कमीशन ने तब देश की राजनीतिक दिशा ही बदल दी थी। 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के करीब डेढ़ माह बाद ही 25 सितंबर को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की अपनी रथयात्रा की शुरुआत कर दी। मंडल की काट के तौर पर शुरू हुई इस ‘कमंडलीय’ यात्रा का भाजपा को इस मौजूदा मुकाम पर पहुंचाने में कितना बड़ा योगदान है, वो किसी से छिपा नहीं है। राम मंदिर आंदोलन से बने भाजपा के हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए तब की वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन का जो दांव चला था वो लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा और बाद में विवादित ढांचे के ढहाए जाने के बाद बने सियासी माहौल में छिन्न-भिन्न हो गया था। तब से भाजपा अपने इस कोर वोट बैंक और बाद में मोदी सरकार के दौरान बनाए गए लाभार्थी वोट बैंक के सहारे लगातार सीट दर सीट और राज्य दर राज्य सफलता अर्जित करती चली आ रही है। अब ऐसे में मोदी की तीसरी पारी को रोकने के लिए गठित INDIA गठबंधन ने एक बार फिर मंडल पार्ट 2 को आजमाने का दांव चला है।
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वस्तुतः देखा जाए तो अंग्रेज भले चले गए हों लोकिन सत्ता हथियाने और चलाने की मूल नीति आज भी वही है- फूट डालो और राज करो वाली। भाजपा पर अगर समाज को हिंदू-मुसलमान में बांट कर ध्रुवीकरण के जरिए सत्ता हथियाने का आरोप है तो विपक्ष की ये मौजूदा दांव आजमाइश हिंदुओं का जातीय ध्रुवीकरण करके भाजपा के वोटबैंक को ध्वस्त करने की है। बिहार के जातीय सर्वे पर ही गौर करें तो यहां करीब 82 फीसदी हिंदू करीब 18 फीसदी मुसलमान मतदाता हैं। देश की कुल आबादी में भी तकरीबन यही अनुपात है। मंडल-2 के दांव का सीधा-सरल वोटीय गणित इस वृहद हिंदू वोट बैंक में जातीय सेंध लगाकर भाजपा को पटखनी देने का है।
जाति आधारित राजनीति पर आश्रित बिहार और उत्तरप्रदेश के क्षेत्रीय दलों का जातीय कार्ड खेलना तो फिर भी समझ में आता है, लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का जातीय जनगणना जैसी मांग के साथ खड़ा होना समाज के जातीय विभाजन की खाई को और चौड़ा करने वाला कदम साबित होगा। सोचिए कैसी विडंबना है कि “जात पर ना पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर” जैसा सामाजिक एकता का नारा लगा कर लोगों वोट मांगने वाली कांग्रेस आज अपने सियासी पराभाव के चलते “जिसकी जितनी भागेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” जैसा क्षेत्रीय सियासी मिजाज वाला नारा लगाने को मजबूर हो गई है।
कांग्रेस के भागेदारी के लिहाज से हिस्सेदारी वाली इस नई मांग पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बस्तर के दौरे पर आयोजित सभा में करारा वार करके ये संकेत दे दिया है कि भाजपा भी आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी का अपना फार्मूला तय कर चुकी है। प्रधानमंत्री ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिए गए चर्चित बयान का हवाला देकर कहा कि मनमोहन सिंह तो कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस से पूछा कि, ‘अगर आबादी के हिसाब से ही होने वाला है तो क्या सबसे बड़ी आबादी वाले हिंदुओं को आगे आना चाहिए और अपने सभी अधिकार लेने चाहिए?’ प्रधानमंत्री मोदी ने जाति आधारित राजनीति से भाजपा को होने वाले संभावित नुकसान को भांपते हुए ये भी बताना नहीं भूले कि इस देश में अगर सबसे बड़ी कोई आबादी है तो वह गरीब है और इसलिए गरीब कल्याण ही उनका मकसद है। दरअसल मोदी इसके जरिए अपने हिंदुत्ववादी और लाभार्थी दोनों वोट बैंक को साधने की कोशिश कर रहे हैं।
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कुल मिलाकर जब हालात काफी कुछ 1990-91 वाले ही हैं, तो सहज सवाल उठता है कि क्या भाजपा भी मंडल-2 की काट के लिए कमंडल-2 का दांव चलने को मजबूर हो जाएगी। 82 फीसदी हिंदू आबादी को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के जरिए अपने पाले में बनाए रखने के लिए भाजपा के पास ध्रुवीकरण वाले धार्मिक और राष्ट्रवादी मुद्दों की कमी है भी नहीं। राममंदिर का मुद्दा भले सुलझ गया हो लेकिन काशी का ज्ञानवापी और मथुरा का श्रीकृष्णजन्म विवाद अभी ठंडा नहीं पड़ा है। देश में समान नागरिक संहिता लागू करना तो भाजपा का घोषित एजेंडा रहा है। केंद्रीय सत्ता में आने के बाद भाजपा की अब तक की नीति इन विवादित मुद्दों से खुद को अलग रख कर कथित तौर पर ‘सबका साथ-सबका विकास’ की नीति पर चलने की रही है। लेकिन अगर आने वाले समय में मंडल-2 के जरिए विपक्ष ने उसके हिंदू वोट बैंक में फूट डालकर उसे अपने पाले में लाने की कोशिश की तो भाजपा भी खुले तौर पर दोबारा ‘कमंडल’ थाम ले तो हैरान नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो आने वाले दिन देश के सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से काफी अहम साबित होंगे।