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कम लोगों को कम समय के लिए बेवकूफ बनाया जा सकता है। कम लोगों को लंबे समय तक के लिए बेवकूफ बनाया जा सकता है। कई सारे लोगों को थोड़े समय के लिए बेवकूफ बनाया जा सकता है। लेकिन कई सारे लोगों को काफी लंबे समय तक के लिए बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली मात के पीछे की वजहों का यही ‘सार’ है।
दिल्ली के मतदाताओं ने इस बार ‘आप’ के अरमानों पर झाड़ू फेर दिया। मतदाताओं ने जिस धूम के साथ कभी ‘आप’ की बारात निकली थी, उसी धूम के साथ उसके अरमानों की मय्यत भी निकाल दी। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया समेत आप की टॉप लीडरशिप का चुनाव हार जाना बताता है कि शार्टटम फायदे के लिए शुरू किए गए पॉलिटिकल स्टार्टअप का यही अंजाम होता है।
दरअसल दिल्ली में परसेप्शन और नैरेटिव की लड़ाई थी, जिसमें ‘सर जी’ इस बार बुरी तरह मात खा गए। अरविंद केजरीवाल ने रामलीला मैदान से ‘शीशमहल’ तक की सियासी यात्रा जिस परसेप्शन और नैरेटिव के बलबूते तय की थी, वही उनके गले की फांस बन गया। खुद को ‘आम’ और ‘ईमानदार’ तथा बाकी सारे नेताओं को चोर और सुविधाभोगी निरूपित करके देश में नई राजनीति की शुरुआत करने का सब्जबाग दिखाने वालों को मतदाताओं ने आईना दिखा दिया है। अब ये केजरीवाल पर है कि वे इस आइने में खुद को देखें कि वे ,’क्या से क्या हो गए देखते-देखते’ या फिर चाहें तो मतदाताओं पर ही तोहमत मढ़ दें कि- ‘सब मिले हुए हैं जी’।
भ्रष्टाचार और अनैतिक राजनीति के दलदल में खड़े देश को महात्मा गांधी के प्रायोजित अवतारी महापुरुष अन्ना हजारे के चेले अरविंद केजरीवाल के रूप में ‘भ्रष्टाचार का एक ही काल’ नजर आया था। लोगों ने आंख-कान मूंदकर देश के नये नवेले क्रांतिकारी केजरीवाल की बातों पर भरोसा किया। ‘मैं भी अन्ना’ और ‘मुझे चाहिए लोकपाल’ के नारे लिखी टोपियां पहनने वालों को कहां मालूम था कि कोई उन्हें यूं टोपी पहना जाएगा। केजरीवाल ने अपने हर उस वादे और दावे से पलटी मारी, जो उन्होंने पार्टी की स्थापना के दौरान किए थे। केजरीवाल एंड कंपनी ने तो बाकायदा नोटरी से सर्टीफाइड शपथ पत्र में ऐलान किया था कि सत्ता मिलने के बावजूद वे ‘आम आदमी’ बने रहेंगे। गाड़ी, बंगला, सुरक्षा, शुचिता से लेकर तमाम उन वादों को निहायत बेशर्मी के साथ तोड़ा गया जो नई राजनीति स्थापित करने की झांसेबाजी के नाम पर किया गया था। नैतिक पराभाव की पराकाष्ठा इतनी कि अपने बच्चों की झूठी कसम तक खाने से उनकी आत्मा ने उन्हें नहीं धिक्कारा।
केजरीवाल के खिलाफ माहौल बनाने में उनके दोगलेपन और पलटूपन को उजागर करने वाले सैकड़ों वायरल वीडियो की भी बड़ी भूमिका रही। केजरीवाल ने राजनीति में व्याप्त गंदगी को दूर करने के इरादे के साथ दलदल में उतरने का ऐलान किया था, लेकिन वे खुद उसी कीचड़ में बुरी तरह लथड़े नजर आए।
आम आदमी पार्टी की सीटों में आई गिरावट दरअसल उनकी विश्वसनीयता और नैतिकता में आई गिरावट का आउटकम है। सत्ता हासिल के लिए किए गए अनैतिक समझौतों से बनी ‘गिररिटिया छवि’ ने आंदोलनकारी के तौर पर अर्जित साख की कुल जमा पूंजी को खत्म करके कंगाल बना दिया है। जनादेश के बाद नैतिक रूप से दिवालिया घोषित हो चुके केजरीवाल के लिए अब सियासी तौर पर सरवाइव कर पाना सबसे बड़ी चुनौती है। चुनौती इसलिए बड़ी है क्योंकि नैतिक साख की पूंजी तो अरविंद केजरीवाल पहले ही खो चुके थे, अब उनके सत्ता हासिल करने के ‘रेवड़ी मॉडल’ को भी भाजपा ने चुरा लिया है।
राजनीति में कूटनीतिक चातुर्य किसी भी राजनेता की विशिष्टता माना जाता है। लेकिन घाघपन जब धूर्तता में तब्दील हो जाए तो जनता इसे स्वीकार्य नहीं करती। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे जनता की इसी संदेश की तस्दीक कर रहे हैं।