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दो इंजन के साथ दौड़ रही ‘छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस’ में अब तीसरा इंजन भी लग गया है। छत्तीसगढ़ में विधानसभा और लोकसभा के बाद अब नगरीय निकाय चुनाव में भी भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया है। छत्तीसगढ़ के सभी 10 नगर निगमों में भाजपा के महापौर बनने जा रहे हैं। वहीं 49 नगर पालिकाओं में से 35 और 114 नगर पंचायतों में से 81 निकायों में भी अध्यक्ष की कुर्सी पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया है। इन निकायों के वार्डों में भी भाजपा ने इकतरफा जीत हासिल की है।
हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद छत्तीसगढ़ के नगरीय निकायों में मिली जीत ने भाजपा के पहले से बने मोमेंटम को और बूस्ट कर दिया है। नगरीय निकायों में मिली इस प्रचंड जीत को भाजपा ने डबल इंजन की सरकार से हो रहे विकास पर जनता की मुहर बताया है। भाजपा की ओर से गिनाए जा रहे जीत के इस नए ‘फैक्टर’ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। प्रदेशों में हुए हालिया चुनावों में मतदाताओं में ये प्रवत्ति नजर आई है कि अब वे वोट डालने से पहले ये पुख्ता कर लेना चाहते हैं कि किस पार्टी की सरकार बनाना उनके लिए मुफीद होगा। ऐसे में भाजपा की ओर से पेश किए जा रहे ‘विकास के नये सिद्धांत’ ने विपक्षी दलों के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है। मतदाताओं को अब सत्ता के सभी केंद्रों में समान सरकार की मौजूदगी में विकास की ‘गारंटी’ नजर आ रही है। हो सकता है कि मतदाताओं की मनोवृत्ति में आया ये बदलाव फैडरल सिस्टम की अवधारणा के खिलाफ दिखाई दे, लेकिन इस बदलाव की प्रभावकारिता से इंकार नहीं किया जा सकता।
इधर नगरीय निकायों की हार ने लगातार हार ने लस्त-पस्त चल रही कांग्रेस को मायूसी के गर्त में डाल दिया है। हार के बाद की परंपरा को निभाते हुए कांग्रेस ने हार की समीक्षा करने की बात तो कही है, लेकिन ईवीएम और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाकर हार के बहाने गिनाने से वो बाज नहीं आई है। कांग्रेस भले हार के बाद आइना देखने से कतरा रही हो, लेकिन हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद छत्तीसगढ़ के नगरीय निकायों से हुई दुर्गति ने उसकी जमीनी हकीकत को एक बार फिर जगजाहिर कर दिया है। हार के बहाने तलाश रही कांग्रेस को कौन समझाए कि ,
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं है,
कमाल ये है कि तुमको फिर भी यकीन नहीं है।
क्या कांग्रेस इस बात को झुठला सकती है कि टिकट के निर्धारण का उसका तौर तरीका काफी संदेहास्पद था। टिकट की लिस्ट जारी होने के बाद कुछ का नाराज होना और कुछ का बागी बनकर चुनाव मैदान में उतर जाना चुनावी सियासत का सहज स्वाभाविक अंग है। लेकिन जिस तरह से टिकटों की सौदेबाजी के आरोप लगे, उसने कांग्रेस की चुनावी मुहिम को संदिग्ध तो बना ही दिया था। टिकटों के वितरण में परिवार और भाई भतीजावाद के आरोप से भी भला कौन कांग्रेसी इंकार कर सकता है। जब कोई पार्टी काबिलियत और जनस्वीकार्यता की बजाए पुराने घिसे-पिटे फार्मूले के आधार पर उम्मीदवारी का निर्धारण करे तो फिर उसे हार के बाद ‘अगर-मगर और किंतु-परंतु’ करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता।
बहरहाल नतीजे सामने आ चुके हैं। हार-जीत के कारणों की विवेचना का दौर शुरू हो चुका है। हारे हुए उम्मीदवार हाथों में ठीकरा उठाए उसे फोड़ने के लिए सिर की तलाश में निकल चुके हैं। अब देखना है कि एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस इस हार से कुछ सबक लेती है या फिर विधानसभा और लोकसभा चुनाव की तरह ही नगरीय निकाय चुनाव में मिली हार के बाद चेहरे की बजाय आइने पर पड़ी धूल को साफ करने की कवायद में जुट जाती है।
ग़ालिब ताउम्र ये भूल करता रहा
धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा