Youth should move ahead by imbibing the ideals of Vivekananda

#ATAL_RAAG: स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों को आत्मसात कर अग्रसर हों युवा

स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों को आत्मसात कर अग्रसर हों युवा, Youth should move ahead by imbibing the ideals of Vivekananda

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Modified Date: January 12, 2025 / 12:39 PM IST
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Published Date: January 12, 2025 12:37 pm IST

  • कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

स्वामी विवेकानंद यह शब्द आते ही मनोमस्तिष्क में एक ऐसी महान विभूति का दृश्य चित्र तैरने लगता है। जो ज्ञान-विज्ञान, धर्म अध्यात्म , त्याग, तप , साहस, शौर्य और पराक्रम के अजस्र स्त्रोत के रूप में ; भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में सर्वकालिक महान दार्शनिक और चिंतक के रूप में विद्यमान हैं। एक ऐसे युवा संन्यासी जिन्होंने मात्र 39 वर्षों के अपने अल्प जीवन में ही भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति की धरोहर से विश्व को साक्षात्कार कराया। भारतीयता के महान मूल्यों और आदर्शों की विचार गङ्गा में डुबकी लगवाया। वो संन्यासी जिन्होंने भगवा वेश धरकर भारत के सांस्कृतिक सूर्य की अनंत दीप्ति से विश्व को ज्ञान के सच्चे अर्थों से परिचित करवाया। 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सभा में अपने व्याख्यान/ उद्बोधन से पहले ; जो अनाम-अपरिचित थे। किन्तु जैसे ही उन्होंने वीणापाणि माँ सरस्वती को प्रणाम कर ‘अमेरिका वासी बहनों और भाइयों’ के संबोधन के साथ संबोधित करना शुरू किया तो कुछ मिनटों तक वहां उपस्थित 7 हजार लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट से आर्ट इन्स्टीट्यूट का सभागृह गुंजित होता रहा। फिर विश्व धर्मसभा के सबसे बड़े आकर्षण के केंद्र बनने से लेकर भारतीय ज्ञान-मेधा और हिन्दू धर्म के महान आर्ष सत्य के प्रखर संवाहक के तौर पर स्वामी विवेकानंद जग-प्रसिद्ध हुए। वह दिग्विजय की यात्रा भारत की महान सांस्कृतिक विरासत का प्रतिबिम्ब थी जो स्वामी विवेकानंद की ऋषि वाणी से अमेरिका में गूंजी।

इसी संदर्भ में विश्व धर्म महासभा में स्वामी जी के उद्बोधन का संक्षिप्तांश दृष्टव्य है – मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्म सत्य मानते हैं | मुझे आप से कहने में गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में ‘exclusion’ शब्द अननुवाद्य है (जयध्वनि) । मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था उसी वर्ष विशुद्धतम यहुदियों के एक अंश को जिसने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, अपने हृदय में स्थान दिया था। मैं उस धर्म का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ, जिसने महान ज़रथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह आज भी कर रहा है।”

स्वामी विवेकानंद ने केवल 30 वर्ष की अवस्था में ही विश्व के समक्ष भारत के ज्ञान की पताका फहराई थी। किंतु स्वामी विवेकानंद की निर्मित्ति के पीछे त्याग और तप की विराट शक्ति थी। जो उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस और गुरुमाता शारदा देवी के रूप में सदैव विद्यमान रही। लेकिन उस शक्ति की ग्राह्यता के लिए ‘विवेकानंद’ रुपी व्रतधारी का आदर्श जीवन चरित्र भी था। जो राष्ट्र-समाज,धर्म-अध्यात्म को जहां एक ओर तर्क और विज्ञान की कसौटी पर रखता था तो दूसरी ओर असीम श्रद्धा के साथ महान हिन्दू पूर्वजों, धर्मग्रंथों, परम्पराओं के प्रति समर्पण का एकात्म भी प्रस्तुत करता था। एक ऐसा परिव्राजक संन्यासी जिसका क्षण-क्षण राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित रहा। एक-एक विचार राष्ट्रीय जीवन को सशक्त -समृद्ध करने के लिए रहा। उन्होंने केवल कोरे उपदेश ही नहीं दिए बल्कि उसको साकार करने के लिए स्वयं को राष्ट्र की यज्ञ वेदी में समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श इसीलिए हैं क्योंकि उनके जीवन का एक-एक पक्ष, एक-एक विचार-अनंत ऊर्जा की विद्युतमय तरंगों से परिपूर्ण है। उनके विचार और दर्शन में तथ्य-तर्क, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान सबका समावेश है। वे कहते हैं कि – “मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप हो जायगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासंपन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाए।”

जब हम स्वयं के युवा होने का दावा करते हैं तो यह प्रश्न भी उठता है कि – क्या हम स्वामी जी के उन सौ युवाओं की अर्हता को पूरा करते हैं? इतना ही नहीं जब वे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं तो हमें सर्वसामर्थ्यवान होने का बोध भी प्रदान करते हैं। स्वामी जी कहते हैं कि – “ आगे बढ़ो। हमें अनंत शक्ति, अनंत उत्साह, अनंत साहस तथा अनंत धैर्य चाहिए, तभी महान् कार्य संपन्न होगा। मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज !”

यह सब कैसे प्राप्त होगा? नि:संदेह इसके लिए चारित्रिक श्रेष्ठता और दृढ़इच्छा शक्ति से संपन्न बनना होगा। क्योंकि यही दो मूल्य होते हैं जो किसी भी राष्ट्र और समाज की उन्नति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्वामी जी उच्च चारित्रिक बल और इच्छाशक्ति को जागृत करने के लिए अपने विविध उद्बोधनों/ पत्र-व्यवहारों में आह्वान करते हुए कहते हैं कि -“तुमको आवश्यकता है, चरित्र की और इच्छाशक्ति को सबल बनाने की ।अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते रहो, तो और भी उन्नत हो जाओगे। इच्छा सर्वशक्तिमान है। केवल चरित्र ही कठिनाइयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों को भेदकर उस पार जा सकता है। किसी मनुष्य का चरित्र वास्तव में उसकी मानसिक प्रवृत्तियों एवं मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का ही फल है। चिन्तन ही बहुकाल-स्थायी है और उसकी गति भी दूरव्यापी है। अत: तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो। हमारा प्रत्येक कार्य, हमारा प्रत्येक अंग-संचालन, हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर इसी प्रकार का एक संस्कार छोड़ जाता है। हम प्रत्येक क्षण जो कुछ होते हैं, वह इन संस्कारों के समूह द्वारा ही निर्धारित होता है। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। यदि भले संस्कारों का प्राबल्य रहे, तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है और यदि बुरे संस्कारों का, तो बुरा । ”

स्वामीजी अपने कालखंड में समाज को संगठित करने के लिए युवाशक्ति में नव चैतन्यता भर रहे थे। उनके अनुसार कैसा होना चाहिए युवा? साथ ही युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए वे आत्मोत्सर्ग की भावना से ओत-प्रोत रहते थे। इसीलिए उन्होंने उस समय जो कहा था वह आज भी उतना ही अधिक प्रासंगिक है -“वह मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारतमाता अपनी उन्नति के लिए अपने श्रेष्ठ संतानों की बलि चाहती है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है। पहले उनका जीवननिर्माण करना होगा, तब कहीं काम होगा। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें – ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जागृत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फूँक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य संपूर्ण रूप से निर्भर है। मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिए जन्म लिया है। यही क्या, प्रत्येक नगर में सैकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, जो दीन-हीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म और शिक्षा उड़ेल दें। और इसे मैं करूँगा, या मरूँगा।”

फिर जब बात आती है शिक्षा की तो स्वामी जी का शिक्षा के उद्देश्य से क्या आशय था? युवा होने के नाते हम शिक्षा का क्या अर्थ ग्रहण करते हैं? केवल डिग्री जो हमारे रोजगार/ जीविकोपार्जन का माध्यम बनती है? क्या शिक्षा वह जिसे हम तथाकथित आधुनिकता के विषाक्त रंग-रोगन में समेटे ‘अभिजात’ होने का मिथ्यादंभ पाले फिरते रहते हैं? स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को अत्यंत सुंदर रूप में परिभाषित किया है। वे कहते हैं कि – “जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जौ मनुष्य में चरित्र-बल, परहित-भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही है शिक्षा।”

यह रही शिक्षा की बात लेकिन यह शिक्षा आचार-व्यवहार में कैसे प्रकट होगी। इसके लिए वे उन्नति के दो सूत्र देते हुए कहते हैं कि ‘त्याग’ और ‘सेवा’ ही भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं इन दो बातों में भारत को उन्नत करो। ऐसा होने पर सब कुछ अपने आप ही उन्नत हो जाएगा। इतना ही नहीं वो सज्जन होने की अनिवार्य शर्त घोषित करते हुए कहते हैं कि “उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है।”

अभिप्रायत: हम जो भी ग्रहण करें वह राष्ट्र जीवन के लिए हो। त्याग और सेवा के मूल के साथ हम समाज के वंचितों-उपेक्षितों के सहायक बनें। उनके उत्थान और कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हों। इसी दिशा में प्रबोधन करते हुए कहते हैं कि – “अपने तन, मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो। तुमने पढ़ा ‘अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ पिता को ईश्वर समझो’ परंतु मैं कहता हूँ, दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुःखी, इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो।”

वस्तुत: स्वामी विवेकानंद ने युवा होने के जिन अर्थों को-बोध को प्रकट किया। हमें उन्हें आत्मसात कर कर्त्तव्य पथ की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। 21 वीं सदी भारत की है उसकी बागडोर युवाओं के कंधों में है। ऐसे में उच्च चारित्र्यबल से संपन्न, आत्मानुशासित, आत्मगौरव से परिपूर्ण विचारों के प्रवाह की आवश्यकता है। जो राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवहमान हो। राष्ट्र की गौरवपूर्ण विरासत के साथ नागरिक कर्त्तव्यों का पालन करना। ‘स्व’ को केंद्रित रखकर व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज जीवन शुचिता की ओर अग्रसर होना।उच्छृंखलता के विकृत वातावरण को समाप्त करते हुए सर्जनात्मकता के साथ गतिमान रहना। युवा होने के नाते यह हमारी प्राथमिक और अनिवार्य जिम्मेदारी है। समाज को स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से नवाचारों और नवोन्मेष के पथ पर सतत् अग्रसर रहना। सामाजिक समरसता को आचार और व्यवहार में उतारना और विभाजनकारी शक्तियों के प्रतिकार करने के लिए प्रति क्षण तत्पर रहना होगा। त्याग और सेवा को आचरण में उतारना होगा। इसके साथ ही तकनीकी के प्रसार के साथ ही जिस ढंग से चुनौतियां राष्ट्रजीवन के समक्ष आई हैं। उनके उपाय भी हमें ही खोजने होंगे। समाज को जागरूक करना पड़ेगा। फिर जब हम राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ अपने जीवन को गढ़ेंगे तो निश्चय ही सर्वत्र राष्ट्र की जय-जयकार सुनाई देगी। भारत माता विश्व गुरु के पद पर सिंहासनारुढ़ होकर राष्ट्र को अमरता के पथ की ओर प्रेरित करेंगी। यही स्वामी जी के आदर्शों पर चलते हुए नव भारत को गढ़ने का – मन्त्र है।

(लेखक IBC 24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)

Disclaimer- आलेख में व्यक्त विचारों से IBC24 अथवा SBMMPL का कोई संबंध नहीं है। हर तरह के वाद, विवाद के लिए लेखक व्यक्तिगत तौर से जिम्मेदार हैं।

 
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