#ATAL_RAAG_स्वातन्त्र्य समर के 'प्रतापी' गणेश शंकर विद्यार्थी

#ATAL_RAAG_स्वातन्त्र्य समर के ‘प्रतापी’ गणेश शंकर विद्यार्थी

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Modified Date: October 26, 2024 / 04:36 PM IST
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Published Date: October 26, 2024 2:03 pm IST

स्वातन्त्र्य समर के ‘प्रतापी’ गणेश शंकर विद्यार्थी

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल, IBC24 

‘प्रताप’ शब्द का स्मरण आते ही प्राय: मनोमस्तिष्क में दो महापुरुषों के नाम ऊर्जा से तरंगित करने लगते हैं। एक – महाराणा प्रताप और दूसरे हैं – स्वातन्त्र्य समर के प्रतापी वीर
गणेश शंकर विद्यार्थी। उनके सम्पादन में 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की इन पंक्तियों के साथ ‘साप्ताहिक प्रताप’ का शुभारम्भ हुआ था —
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से प्रभावित गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘स्वराज्य’ को उद्घोष बनाया और राष्ट्र के ‘स्व’ जागरण के लिए ‘स्वधर्म’ का अनुसरण करते हुए ‘प्रताप’ में स्वराज्य का बीज मन्त्र प्राणों की भांति फूँक दिया।’प्रताप’ स्वातन्त्र्य समर का ऐसा प्रखर आन्दोलनकारी वैचारिक पत्र था जिसने क्रान्ति, भाषा- साहित्य एवं संस्कृति का राष्ट्रव्यापी शंखनाद किया था। इसके सम्पादक थे गणेश शंकर विद्यार्थी जी। आगे चलकर प्रताप और गणेश शंकर विद्यार्थी एक दूसरे के पर्याय के रूप में जाने गए। प्रारम्भ में ‘प्रताप’ का कार्यालय कानपुर की पीली कोठी रहा। जो आगे चलकर फीलखाना भवन में स्थानांतरित हो गया। लेकिन दोनों स्थान ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से ही जाने गए। इसी तरह शुरुआत में प्रताप की पृष्ठ संख्या – 16 थी जो प्रकाशन के पहले वर्ष में ही 20 पृष्ठ और वार्षिक मूल्य 2 रुपये हो गया। आगे सन् 1930 आते -आते प्रताप का कलेवर 40 पृष्ठों का और इसकी वार्षिक शुल्क साढ़े तीन रुपये हो गई थी।

गणेश शंकर विद्यार्थी यानी भारतीय चेतना की वह ज्वाला जो अपने क्रांतिकारी विचारों से सदैव धधकती रही । गणेश शंकर विद्यार्थी यानी जिन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन को जन- जन का आन्दोलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बात चाहे उनकी पत्रकारिता की हो – या बात हो क्रान्तिकारी आन्दोलनों की, याकि बात हो सत्य के लिए अपने आत्मोत्सर्ग कर देने की अदम्य जिजीविषा की। विद्यार्थी जी ने जिस संकल्प का श्री गणेश किया – फिर उस संकल्प से क्षणिक भी विचलित नहीं हुए। हिमालय जैसी दृढ़ता लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने सम्पादकीय तेवरों का इतना विराट स्वरूप बनाया कि – उससे ब्रिटिश सरकार भयाक्रांत हो गई।फिर क्रूर ब्रिटिश सरकार ने विद्यार्थी जी के दमन की पराकाष्ठाओं की अति कर दी, लेकिन कोई भी उनके अटल- अडिग उद्देश्यों से उन्हें डिगा नहीं सका। राष्ट्रीय चेतना के लिए देश – समाज को जागृत करने के साथ – साथ वे किसानों, मजदूरों, पीड़ितों की आवाज बने। वे पूंजीवाद – सामंतवाद के सामने दीवार बनकर आ खड़े हुए। उन्होंने लेखनी से – आन्दोलनों से अंग्रेजी सरकार की चूलें हिलाकर रख दी।

ऐसे क्रांति के चलते फिरते संस्थान गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद ( प्रयागराज) में पिता बाबू जयनारायण श्रीवास्तव व माता गोमती देवी के यहां दूसरी संतान के रूप में हुआ। उनसे बड़े उनके भाई शिवव्रत नारायण और छोटी बहन रुक्मिणी देवी थी। उनके नामकरण के पीछे एक रोचक कथा है । उनकी नानी गंगा देवी ने स्वप्न में देखा था कि वे अपनी पुत्री को गणेश जी की प्रतिमा उपहार में दे रही हैं। अतएव इस आधार पर उन्होंने तय किया कि गोमती देवी की होने वाली संतान यदि बेटा हुआ तो – ‘गणेश’ और यदि बेटी हुई तो – ‘गणेशी’ रखा जाएगा। अतएव उनके जन्म के बाद उनका नाम गणेश शंकर रखा गया। चूँकि गणेश शंकर विद्यार्थी अपने समूचे जीवन में स्वयं को विद्यार्थी मानते रहे और उनकी अध्ययनशीलता किसी को भी अचम्भित करती थी। यही कारण था कि उन्होंने अपना उपनाम ‘विद्यार्थी’ रखा।

उनकी प्राथमिक शिक्षा मुंगावली के ए.वी.एम. स्कूल मुंगावली में उर्दू में हुई। और उनकी माध्यमिक शिक्षा विदिशा के ए.वी.एम. स्कूल से 1905 में अंग्रेजी माध्यम में पूर्ण हुई। उस समय उनकी आयु 15 वर्ष थी। सन् 1907 में एफ.ए. की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद ( प्रयागराज) के कायस्थ पाठशाला में प्रवेश ले लिया। क्रमशः उर्दू और अंग्रेजी में शिक्षा होने के उपरान्त भी उनका हिन्दी भाषा एवं साहित्य से अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला गया। जब वे प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसी समय से उन्होंने कोलकाता से प्रकाशित होने वाले — ‘भारत मित्र’ और ‘बंगवासी’ पत्रों को पढ़ने के साथ – साथ ही सहपाठियों को पढ़कर सुनाया भी करते थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादन में इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘सरस्वती’ के उस समय उपलब्ध सभी अंको को उन्होंने पढ़ डाला था।

उनका पत्रकारिता में प्रवेश गरम दल के क्रांतिकारी उर्दू पत्र ‘स्वराज’ में लघु टिप्पणियों से हुआ जिसके सम्पादक शांतिनारायण भटनागर थे। उसी अध्ययनकाल में पं. सुन्दरलाल के क्रांतिकारी पत्र ‘कर्मयोगी’ से भी विद्यार्थी जी जुड़े। आगे चलकर जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने 6 फरवरी 1908 – 26 नवम्बर 1909 तक उन्होंने तीस रुपये महीने के वेतन पर कानपुर की सरकारी करेंसी में ‘क्लर्क’ की नौकरी की। जहां उनका काम चलन से बाहर कटे- फटे नोटों को जमा करवाना था। वे अपने कार्यों के प्रति निष्ठावान थे । अपने कार्यों को पूरा करने के बाद उन्हें जैसे ही खाली समय मिलता वे पढ़ने बैठ जाते थे। अतएव काम पूरा करने के बाद उस समर – जब वे कोई पुस्तक सम्भवतः ‘कर्मयोगी पत्र’ पढ़ रहे थे। उस समय किसी अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें वहां पढ़ते हुए देखकर आपत्ति की। फिर उनके बीच बहस हुई और गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने त्वरित त्यागपत्र दे दिया।

आगे चलकर नारायण प्रसाद अरोड़ा के कहने पर उनकी नियुक्ति 1 दिसम्बर 1909 को कानपुर के ही पं. पृथ्वीनाथ हाईस्कूल में 20 रुपये के मासिक वेतन पर हो गई थी। लेकिन यहां भी उनके साथ यही पुनरावृत्ति हुई – विद्यालय के प्रधानाध्यापक सजीवनलाल ने ‘कर्मयोगी’ की प्रति – विद्यालय में लाने और पढ़ने पर आपत्ति की। अतएव गणेश शंकर विद्यार्थी ने यहां से भी 5 सितम्बर 1910 को त्यागपत्र दे दिया। तत्पश्चात उन्होंने कुछ समय हिंदुस्तान इंश्योरेंस कंपनी में नौकरी की।

ये सब घटनाक्रम और वस्तुस्थितियाँ उस महान प्रयोजन की पूर्व पीठिकाएँ थी जिसके लिए गणेश शंकर विद्यार्थी बने थे। 1910 – 1911 के दौरान ‘सरस्वती पत्रिका’ में सहायक सम्पादक की आवश्यकता थी। महाशय काशीनाथ ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘गणेश शंकर विद्यार्थी ‘ का नाम प्रस्तावित किया। गणेश जी की भाषा – शैली और उनके व्यक्तित्व कृतित्व से पूर्व परिचित होने के चलते — आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने नवम्बर 1911 में ‘सरस्वती’ के बतौर सहायक सम्पादक उनको नियुक्ति दी। यहां उनका वेतन 25 रुपये मासिक था। और यहीं से विद्यार्थी जी ने हिन्दी की भाषा – शैली एवं पत्रकारिता के तेवरों को आचार्य द्विवेदी के सानिध्य में सीखने लगे। आगे चलकर महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने और गणेश जी के विषय में लिखा – “जब तक मेरे पास रहे, गणेश ने बड़ी मुस्तैदी और बड़े परिश्रम से काम किया। उनकी शालीनता, सुजनता, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन की सदिच्छा ने मुझे मुग्ध कर लिया। उधर वे मुझे शिक्षक या गुरु मानते थे, इधर मैं स्वयं ही कितनी बातों में उन्हें अपना गुरु समझता था। हिन्दी लिखना उन्होंने खूब सीखा।”

चूंकि ‘सरस्वती पत्रिका’ साहित्यिक कलेवर की थी। जो इंडियन प्रेस से प्रकाशित होती थी ।और ब्रिटिश सरकार के अधीन शिक्षा विभाग से जुड़ी थी। इसी कारण से सरस्वती में अंग्रेज सरकार विरोधी विषयों से लगभग परहेज था। लेकिन दूसरी ओर गणेश शंकर विद्यार्थी के अन्दर प्रखर राष्ट्रवादी – क्रांतिकारी विचारों की ज्वाला सुलग रही थी। जो राष्ट्र और समाज को एकसूत्रता में पिरोकर स्वातन्त्र्य समर का शंखनाद कर रही थी। उनकी विचार चेतना समाज को सचेत कर संघर्ष के लिए – राष्ट्रोत्थान के लिए आह्वान कर रही थी। अतएव ‘सरस्वती’ से लगाव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रति अटूट श्रद्धा एवं गुरुभक्ति के आदरभाव के बावजूद भी ‘सरस्वती’ में उनका क्रांतिकारी मन रम नहीं रहा था। इसी बीच महामना पं. मदनमोहन मालवीय को इलाहाबाद (प्रयागराज) से निकलने वाले ‘अभ्युदय’ पत्र के लिए ऊर्जावान – राष्ट्रभक्त प्रतिभाशाली पत्रकार की आवश्यकता आन पड़ी थी। इस आशय – मालवीय जी ने विद्यार्थी जी को पत्र लिखा । महामना के प्रति उसी आदरभाव से आलोडित – गणेश शंकर विद्यार्थी ने 29 दिसम्बर 1912 को 40 रुपये मासिक वेतन पर ‘अभ्युदय’ के सहयोगी सम्पादक के तौर पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। गणेश जी को ‘अभ्युदय’ में आत्माभिव्यक्ति का अवसर और ‘अभ्युदय’ को क्रान्तिकारी कलेवर मिला। अपने दस महीनों के कार्यकाल में उन्होंने ‘अभ्युदय’ में नए प्राण फूंक दिए। इसकी बानगी हमें विद्यार्थी जी के प्रथम जीवनीकार देवव्रत शास्त्री के इन विचारों से मिलती है — “गणेशजी के ‘अभ्युदय’ में जाने के बाद उसके ग्राहक बढ़कर दुगुने हो गए। उनकी लेखनी ने ‘अभ्युदय’ के पाठकों जान डाल दी। ‘अभ्युदय’ में वे अग्रलेख और टिप्पणियाँ लिखते थे।”

आगे चलकर ‘अभ्युदय’ से त्यागपत्र देने के बाद 9 नवम्बर 1913 को राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के सजग प्रहरी ‘साप्ताहिक प्रताप ‘ का शुभारम्भ हुआ। यह प्रताप नाम गणेश जी ने ‘महाराणा प्रताप ‘ के स्मारक के रूप में चयनित किया था। शुरुआत में ‘प्रताप’ पं. यशोदानंदन के कारोनेशन प्रेस से प्रकाशित होता था। शुरू में इसके चार स्तम्भ – गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, पं.यशोदानंदन,पं. शिवनारायण मिश्र थे। किन्तु जहां शुरुआती चार महीनों के बाद यशोदानंदन ने अपने हाथ पीछे खींच लिए तो वहीं एक साल बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा ने भी प्रताप से मुंह मोड़ लिया। लेकिन पं. शिवनारायण मिश्र ‘प्रताप’ और विद्यार्थी जी के साथ आजीवन बने रहे। राष्ट्रीय चेतना एवं समाज की पीड़ा को उकेरने वाले ‘प्रताप’ पर सरकारी दमन के कुचक्र चले। अत्याचारी ब्रिटिश सरकार, देशी रियासतें और जमींदार – ताल्लुकेदार सभी उनके पीछे पड़े हुए थे। सन् 1921 में रायबरेली मानहानि के झूठे मुकदमे में उनकी गिरफ्तारी हुई। आगे 12 अगस्त 1926 से 17 नवम्बर 1926 तक ‘मैनपुरी मानहानि’ मुकदमा चला जिसमें स्थानीय कोर्ट ने दोषी करार दिया। चार- चार सौ रुपए का जुर्माना और छ: -छ: महीने की जेल की सजा विद्यार्थी जी और सुरेन्द्र शर्मा को सुनाई गई। लेकिन हाईकोर्ट ने बाइज्जत बरी किया। तीसरा मामला – सन् 1926 को सांईखेड़ा नरसिंहपुर ( म.प्र.) पर आधारित ‘महंत और पुरोहित वाद’ लेख के कारण चला। विद्यार्थी जी जेल जाते – छूटते लेकिन ‘प्रताप’ की रीति – नीति से कभी कोई समझौता नहीं करते।

वे प्रताप में अन्य छद्म नामों यथा – हरि, दिवाकर, गजेन्द्र, लम्बोदर, वक्रतुंड, श्रीकांत , एक भारतीय नवयुवक आदि नामों से लिखते थे।  इतना ही नहीं सरदार भगत सिंह  भी  प्रताप के सम्पादकीय विभाग में अपने छद्म नाम ‘बलवंत सिंह’ के नाम से काम किया था। वे लेख लिखते थे। वहीं दादा माखनलाल चतुर्वेदी एवं मैथिलीशरण गुप्त विद्यार्थी जी के मित्रवत रुप में ‘प्रताप’ को दिशा दे रहे थे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी जी की पत्रिका ‘प्रभा’ को (जनवरी 1950 -मई 1925 ) कानपुर से पुनर्प्रकाशित करने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। इसी प्रभा का ‘झण्डा विशेषांक ‘ राष्ट्रीय पत्रकारिता के मूल्यवान दस्तावेज के रुप में जाना जाता है। इतना ही नहीं उन्होंने ‘प्रकाश प्रेस’ की स्थापना कर राष्ट्रीय साहित्य के प्रकाशन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ ने उनके अनुरोध पर ही झण्डा गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ को 1925 में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन के लिए लिखा था।

गणेश शंकर विद्यार्थी के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला प्रताप इतना प्रतापी हो गया कि – राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक आर्थिक राजनैतिक परिस्थितियों, भाषा- साहित्य एवं जनजागरण में युगांतरकारी स्वरुप ग्रहण कर लिया था। प्रताप इतना यशस्वी और तेजस्वी हुआ कि स्वाधीनता आन्दोलन के साथ – ‘प्रताप युग’ के रूप में जाना – पहचाना गया। पत्रकारिता – साहित्य एवं क्रांतिकारी आन्दोलनों में सक्रिय नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाने वाले — गणेश शंकर विद्यार्थी जी को 24 मई 1930 को ‘सत्याग्रह’ आन्दोलन में भाग लेने के चलते गिरफ्तार कर 25 मई 1931 को हरदोई जेल भेज दिया गया। गांधी – इरविन समझौते के बाद 10 मार्च 1931 को वे जेल से छूटे । गणेश जी पूर्व में 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान और उसी 23 मार्च 1931 को सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को हुई फांसी से विचलित से रहने लगे थे।

इसी बीच 24 मार्च की रात्रि से हड़ताल में बाजार बंद कराने के बीच ही कानपुर में अनायास – अचानक साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए। गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे को शांत करवाने और हिन्दू – मुसलमानों को दंगों की लपट से बचाने में जुट गए ‌‌। लेकिन राष्ट्र और समाज को एक करने वाले उस महान क्रांतिकारी की 25 मार्च 1931 को दुर्दांत कट्टरपंथी मुस्लिम दंगाइयों ने उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार स्वातन्त्र्य समर के प्रतापी गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने स्वयं राष्ट्र की आहुति बनाकर माँ भारती के श्री चरणों में ‘आत्मोसर्ग’ कर दिया। उनके बलिदान पर महात्मा गाँधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था — “उनका खून अंत में दोनों मजहबों को आपस में जोड़ने के लिए सीमेंट का काम करेगा।” ।

कराची कांग्रेस ने भी उनकी अनुपस्थिति में शोक प्रस्ताव पारित किया । पं. नेहरू ने भी उनके योगदान पर भावपूर्ण लेख लिखा। उस समय के लगभग सभी पत्र- पत्रिकाओं में उनका पुण्य स्मरण करते हुए लेख लिखे गए। केन्द्रीय असेम्बली में बहसें हुईं। आगे चलकर भगवानदास व पं. सुन्दरलाल के नेतृत्व में जाँच समिति बनी‌ । उस जांच से यह निष्कर्ष निकला कि – उनकी हत्या के पीछे स्थानीय पुलिस की घोर लापरवाही है। कई सौ पन्नों वाली उस जांच रिपोर्ट को उस समय अंग्रेज सरकार ने जब्त भी कर लिया था। जीवन पर्यन्त स्वाधीनता आन्दोलन के लिए अपने को तपाने- खपाने- गलाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी भारतीय इतिहास में दीप्तिमान हैं। उनके नाम से ही उनके कृतित्वों की स्मृतियाँ जीवन्त हो उठती हैं। राष्ट्र व समाज के प्रति असंदिग्ध श्रध्दा – भक्ति – समर्पण एवं ध्येयनिष्ठा- तपोनिष्ठा के पर्याय गणेश शंकर विद्यार्थी को आजीवन कोई संकट डिगा नहीं सका। उन्हें जेल की कोठरियों की कोई आँधी विचलित नहीं कर सकी। विद्यार्थी जी को असह्य शारीरिक – मानसिक यन्त्रणाएं भी उनके कर्त्तव्यों से किञ्चित मात्र भी विमुख नहीं कर सकीं। उन्होंने स्वातन्त्र्य संघर्ष के शंखनाद के लिए पत्रकारिता और आन्दोलनों का एक साथ शंखनाद किया। श्री गणेश किया। शंकर की भांति गरल पान किया और विद्यार्थी की भाँति विनम्रता के साथ आजीवन सीखते हुए अपने जीवन को स्वातन्त्र्य यज्ञ की बलिवेदी में आहुत कर दिया।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( लेखक IBC24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)

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संदर्भ ग्रंथ – 1. गणेश शंकर विद्यार्थी और स्वतंत्रता आंदोलन – विष्णु कुमार राय

2. पत्रकारिता के युग निर्माता गणेश शंकर विद्यार्थी

 
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