सौरभ तिवारी,
डिप्टी एडिटर, IBC24
मोदी सरकार अपनी जिन उपलब्धियों का हवाला देकर खुद को पूर्ववर्ती सरकारों से बेहतर बताती है, उनमें से एक था उत्तर-पूर्व राज्यों में शांति बहाली करके इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना और दूसरा इस सरकार के कार्यकाल में रेल हादसों पर लगाम लगना। इन दोनों उपलब्धियों को आप मोदी सरकार की यूएसपी मान सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इन दोनों यूएसपी पर तगड़ा डेंट लगा है। बालासोर में हुए रेल हादसे के बाद मणिपुर में जारी हिंसा ने मोदी सरकार के सुयश की सूची में फिलहाल दो प्रमुख उपलब्धियों की कटौती कर दी है।
मणिपुर में पिछले डेढ़ महीने से जारी जातीय हिंसा में 100 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और सैकड़ों घायल हैं। हिंसा में 80 हजार से ज्यादा लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। स्कूल-कॉलेज, बाजार, इंटरनेट बंद हैं। हिंसा और आगजनी से भाजपा के मंत्री, विधायक और पदाधिकारी भी नहीं बच सके हैं। यही नहीं बल्कि उपद्रवी तत्व थाने से कई हथियार तक लूट ले गए हैं। कानून व्यवस्था की बदहाली का आलम ये है कि प्रदेश में 30 हजार से ज्यादा केंद्रीय सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बाद भी हालात काबू में नहीं आ सके हैं।
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मणिपुर में जारी हिंसा के मौजूदा दौर को समझने के लिए प्रदेश की सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक व्यवस्था को समझना जरूरी है। विवाद की पृष्ठभूमि में भूमि अधिकारों, सांस्कृतिक प्रभुत्व और ड्रग तस्करी समाहित है। आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं। मणिपुर की राजधानी इम्फाल प्रदेश के बीचों-बीच स्थित है। ये प्रदेश का 10 फीसदी हिस्सा है, जहां प्रदेश की 57% आबादी रहती है, जिसमें ज्यादातर आबादी मैतई समुदाय की है जो हिंदू हैं। प्रदेश की सियासत में मैतई समुदाय का दबदबा है। सूबे के कुल 60 विधायकों में से 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं।
वहीं राजधानी इंफाल के चारों तरफ का हिस्सा पहाड़ी है जहां प्रदेश की 42 फीसदी आबादी रहती है। इन पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं जिनमें प्रमुख रूप से नागा और कुकी जनजाति हैं। ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई हैं। इसके अलावा मणिपुर में आठ प्रतिशत आबादी मुस्लिम और आठ फीसदी आबादी सनमही समुदाय की है। भारतीय संविधान के आर्टिकल 371C के तहत मणिपुर की इन पहाड़ी जनजातियों को विशेष दर्जा और सुविधाएं मिली हैं। ‘लैंड रिफॉर्म एक्ट’ की वजह से मैतेई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर बस नहीं सकता। जबकि इसके उलट पहाड़ी इलाके के जनजाति वर्ग के लोगों के घाटी में आकर बसने पर कोई रोक नहीं है। इस भेदभाव की वजह से दोनों समुदायों में गहरे मतभेद थे जिसने दो तात्कालिक कारणों से हिंसक रूप ले लिया।
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हिंसा भड़कने की पहली वजह बना अवैध अतिक्रमण और अफीम की खेती के खिलाफ सरकार की कार्रवाई। मणिपुर की बीरेन सिंह सरकार का मानना है कि आदिवासी समुदाय खासकर कुकी जनजाति के लोग संरक्षित जंगलों और वन अभयारण्य में गैरकानूनी कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। सरकार ने मणिपुर फॉरेस्ट रूल 2021 के तहत फॉरेस्ट लैंड पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए अभियान चलाया जिसका अनुसूचित जनजाति समुदाय ने विरोध किया। आदिवासियों का कहना है सरकार जिसे अतिक्रमण बता रही है वो उनकी पैतृक जमीन है। आदिवासियों ने सरकार की इस कार्रवाई का विरोध किया। इसी के तहत 28 अप्रैल को द इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने चुराचंदपुर में आठ घंटे बंद का ऐलान किया था। देखते ही देखते इस बंद ने हिंसक रूप ले लिया।
इस आग को भड़काने का काम मैतई समुदाए को मिले आदिवासी दर्जे के फैसले ने किया। दरअसल मैतेई समुदाय पिछले कई सालों से अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा था। मामला मणिपुर हाईकोर्ट पहुंचा जिसने राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग पर विचार करने को कहा। इसके लिए हाईकोर्ट ने सरकार को चार हफ्ते का समय दिया था। मणिपुर हाईकोर्ट के इस आदेश से नगा और कुकी जनजाति भड़क गए। कोर्ट के इस फैसले के विरोधस्वरूप 3 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर ने आदिवासी एकता मार्च निकाला। इस मार्च ने हिंसा से सुलग रहे मणिपुर में घी डालने का काम किया। आदिवासियों के इस प्रदर्शन के विरोध में मैतेई समुदाय के लोग भी खड़े हो गए और देखते ही देखते पूरा प्रदेश इस हिंसा की आग में जलने लगा।
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मणिपुर मामले ने विपक्ष को सरकार पर हमला करने का मौका दे दिया है। 10 राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी है जिसमें जातीय हिंसा को हल करने के लिए उनके तत्काल हस्तक्षेप की मांग की गई है। विपक्ष तो सरकार पर हिंसा रोक सकने में नाकाम रहने का आरोप लगाते हुए प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग भी कर रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री विपक्ष के आरोपों का कोई जवाब दिए बगैर अमेरिका की यात्रा पर पहुंच चुके हैं। इधर पंद्रह अलग-अलग संगठनों ने मणिपुर में जारी हिंसा को लेकर संयुक्त राष्ट्र को एक ज्ञापन भेजते हुए हस्तक्षेप की मांग की है। इधर मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह इस पूरे फसाद के पीछे म्यांमार से आए घुसपैठियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनका साफ कहना है कि ये कुकी-मैतेई की लड़ाई नहीं बल्कि म्यामार के घुसपैठिओं की करतूत है।
सवाल उठता है कि आखिर जातीय और धार्मिक संघर्ष की आग में सुलग रहे मणिपुर की हिंसा का समाधान क्या है और इसकी पहल कौन करेगा? पूर्व अनुभव बताते हैं कि ये समस्या केवल बल प्रयोग करके नहीं सुलझाई जा सकती है। ऐसे मामलों में सख्ती के साथ-साथ बातचीत का रास्ता भी निकालना मददगार साबित होता है। इससे पहले भी पूर्वोत्तर के राज्यों में उद्रवादी संगठनों को रोकने के लिए सरकार ने बातचीत का प्लेटफॉर्म तैयाार किया था। इस बार भी ये पहल तभी संभव होगी जब उग्रवादी संगठनों और सरकार के बीच जरूरी कम्युनिकेशन हो। इसके अलावा उग्रवादियों को म्यांमार के रास्ते मिल रही हथियारों की सप्लाई पर रोक लगाने के लिए बॉर्डर पर भी निगरानी बढ़ाने की जरूरत है। निगरानी से बात नहीं बने तो म्यांमार के खिलाफ एक बार फिर से ‘ऑपरेशन सनराइज’ के सर्जिकल स्ट्राइक का विकल्प तो खुला ही है।
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