(कीले सीमॉर और रोजर कोएनिग, यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी, सिडनी)
सिडनी, 14 जनवरी (द कन्वरसेशन) बिना किसी कर्मचारी की मदद के तकनीकी सहयोग से स्वयं भुगतान करके प्रतिष्ठान से बाहर निकलने से लेकर सड़कों और स्टेडियम तक हर जगह निगरानी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल भरपूर किया जा रहा है।
सुरक्षा के नाम पर अक्सर इस व्यापक निगरानी को उचित ठहराया जाता है। लेकिन ‘न्यूरोसाइंस ऑफ कांशसनेस’ में प्रकाशित हमारे हालिया अध्ययन में परेशान करने वाली एक बात सामने आई है।
निगरानी न केवल हमारे व्यवहार को बदल रही है, बल्कि हमारे मस्तिष्क के काम करने के तरीके को भी बदल रही है और यह हमारी सतर्कता से परे काम कर रहा है।
हमारे अनुसंधान दिखाते हैं कि महज निगरानी होने की बात पता चलते ही दूसरे लोगों की निगाहों को लेकर हमारी जागरुकता अनजाने तरीके से बढ़ सकती है। इन निष्कर्षों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक संपर्क के लिए संभावित रूप से महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं।
ये निष्कर्ष इस बात पर भी गहन विचार करने का संकेत देते हैं कि निरंतर निगरानी हमें न केवल सचेत रूप से, बल्कि हमारे दिमाग के मूक ‘सर्किटरी’ को भी किस तरह आकार देती है।
एक प्राचीन अस्तित्व प्रणाली को सूक्ष्म रूप से बढ़ाना:
मनुष्यों ने सामाजिक स्थितियों में दूसरे लोगों की नजरों को पहचानने की महत्वपूर्ण क्षमता विकसित की है। यह हमें दोस्त और दुश्मन में अंतर करने, भावनाओं की व्याख्या करने और इरादों को समझने में मदद देता है।
निगरानी इस प्राचीन अस्तित्व तंत्र को सूक्ष्म रूप से बढ़ा सकती है, जिससे हमारा दिमाग सामाजिक संकेतों के लिए अत्यंत जागरुक रहता है।
हमारे अध्ययन में कुल 54 लोगों ने भाग लिया, जिनमें से सभी स्नातक छात्र थे। उन्होंने सीसीटीवी कैमरों द्वारा निगरानी के दौरान एक दृश्य कार्य किया। एक अन्य समूह ने निगरानी के बिना वही कार्य किया।
दोनों समूहों के प्रतिभागियों को ऐसे चेहरों की तस्वीरें दिखाई गईं जो या तो सीधे उनकी ओर देख रहे थे या उनसे दूर थे।
‘कंटीनुअस फ्लेश सरप्रेसन’ नामक विधि का उपयोग करते हुए, इन चेहरों को केवल एक आंख के सामने प्रस्तुत करके और दूसरी आंख के सामने तेजी से चमकने वाले पैटर्न के साथ अस्थायी रूप से अदृश्य बना दिया गया।
इन परिस्थितियों में चेहरे को पहचानने में प्रतिभागी द्वारा लिया गया समय यह बताने में मदद करता है कि हमारा मस्तिष्क इस जानकारी का प्रसंस्करण कैसे करता है, इससे पहले कि हम इसके बारे में जानते भी हों।
हमारे सामाजिक दायरे का लक्षित संवर्द्धन:
दोनों समूहों के प्रतिभागियों ने कुल मिलाकर सीधे देखने वाले चेहरों को अधिक तेजी से पहचाना, वहीं जिन प्रतिभागियों को पता था कि उन्हें देखा जा रहा है, वे दूसरे समूह की तुलना में लगभग एक सेकंड पहले इन चेहरों के बारे में अति-जागरूक हो गए।
महत्वपूर्ण बात यह है कि दृश्यों के प्रति तेज प्रतिक्रिया तब नहीं देखी गई जब प्रतिभागियों ने ज्यामितीय विन्यास जैसी तटस्थ छवियों को देखा।
चेहरों के प्रति यह विशिष्टता इस बात पर प्रकाश डालती है कि निगरानी सामाजिक प्रसंस्करण के लिए विकसित एक अधिक मौलिक तंत्रिका सर्किट से संबंधित होती है। यह केवल बढ़ी हुई सतर्कता का मामला नहीं है; यह हमारे सामाजिक दायरे का लक्षित संवर्द्धन है।
गंभीर परिणाम:
धारणा में यह प्रतीत होने वाला सूक्ष्म बदलाव गंभीर परिणाम वाला हो सकता है। दृष्टि के प्रति अति-जागरूकता कई मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों की पहचान है, जिसमें सामाजिक चिंता विकार और मनोविकृति शामिल हैं।
इन स्थितियों का अनुभव करने वाले व्यक्ति अक्सर खुद के ऊपर गहरी निगरानी महसूस करते हैं, जिससे चिंता बढ़ जाती है।
हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि व्यापक निगरानी इन प्रवृत्तियों को बढ़ा सकती है। यह दैनिक जीवन में तनाव की एक अदृश्य परत जोड़ सकती है और संभावित रूप से व्यापक मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां पैदा कर सकती है।
कई प्रतिभागियों ने निगरानी किए जाने के बारे में अपेक्षाकृत बेफिक्र महसूस करने की सूचना दी, भले ही उनके मस्तिष्क ने निगरानी को स्पष्ट रूप से दर्ज किया हो।
यह इस बात को रेखांकित करता है कि हम कितनी आसानी से निरंतर निगरानी को सामान्य बना लेते हैं, इसे आधुनिक जीवन की एक सर्वव्यापी विशेषता के रूप में स्वीकार करते हैं। हम शायद ही कभी कैमरों की उपस्थिति को संज्ञान में लेते हैं। फिर भी हमारा मस्तिष्क लगातार उनकी उपस्थिति के अनुकूल ढल रहा है और हमारी धारणाओं को सूक्ष्मता से आकार दे रहा है।
संतुलन बनाना:
हमारे निष्कर्ष विशेष रूप से तकनीकी उद्योग के कर्ताधर्ताओं द्वारा अधिक निगरानी के लिए हाल ही में की गई घोषणाओं के मद्देनजर समयबद्ध हैं। उदाहरण के लिए, दुनिया के पांचवें सबसे अमीर व्यक्ति और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी कंपनी ओरेकल के सीईओ लैरी एलिसन ने एआई-संचालित निगरानी के लिए अपना दृष्टिकोण पेश किया है।
यह दृष्टिकोण सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन के बारे में गंभीर सवाल उठाता है।
अनुसंधान से साबित हुआ है कि जब लोगों को लगता है कि उन पर नजर रखी जा रही है तो वे अलग तरह से व्यवहार करते हैं। उदाहरण के लिए, वे अधिक उदार हो जाते हैं और असामाजिक व्यवहार में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है।
हमारे नए अध्ययन के निष्कर्ष निरंतर निगरानी की संभावित अनपेक्षित लागत को उजागर करते हैं।
अठारहवीं सदी के दार्शनिक, जेरेमी बेंथम ने पैनोप्टिकॉन को एक जेल डिजाइन के रूप में प्रस्तावित किया, जहां निगरानी की संभावना मात्र ही आत्म-नियमन को प्रोत्साहित करती है।
दरअसल, पिछले 50 वर्षों में मनोवैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़े एक बड़े समूह ने दिखाया है कि पर्यवेक्षक की वास्तविक उपस्थिति के बजाय निहित सामाजिक उपस्थिति व्यवहारिक परिवर्तनों को प्रकट करने की कुंजी है।
जैसे-जैसे निगरानी हमारे जीवन के ताने-बाने में तेजी से समाहित होती जा रही है, हमें न केवल इसके इच्छित प्रभावों पर ध्यान देना चाहिए, बल्कि हमारे दिमाग और हम पर इसके सूक्ष्म, अचेतन प्रभाव पर भी ध्यान देना चाहिए।
(द कन्वरसेशन) वैभव मनीषा
मनीषा